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________________ हिन्दी जैन साहित्य में रहस्यभावना राजस्थानी का संमिलित रूप समाहित है। उसके अधिकांश रूप अपभ्रंश के समान उकारान्त होते हैं। कारकों में भी अपभ्रंश का प्रभाव स्पष्टतः दिखाई देता है। वर्णो की संकोचन प्रवृत्ति भी उसी का रूप है। संयोगात्मकता से वियोगात्मकता की ओर जाने की प्रवृत्ति भी इस काल में बढ़ी है। छन्द सौकर्य के लिए हस्व को दीर्घ और दीर्घ को इस्व किया गया और वर्णो को द्वित्व कर दिया गया। इसे हम पुरानी हिन्दी कह सकते हैं। व्रज का भी प्रभाव यहां दिखाई देता है। अपभ्रंश से सीधे मरुगुर्जर को और मरुगुर्जर के माध्यम से राजस्थानी, गुजराती आदि आधुनिक भाषाओं को विविध रूप मिले हैं। __ अपभ्रंश भाषा की तरह अपभ्रंश साहित्य ने भी हिन्दी, जैन व जैनेतर साहित्य को कम प्रभावित नहीं किया है। इसे समझने के लिए हमें संक्षेप में अपभ्रंश जैन साहित्य पर एक दृष्टिपात करना आवश्यक होगा। यह साहित्य मुख्यतः प्रबन्धकाव्य, खण्डकाव्य और मुक्तककाव्य की प्रवृत्तियों से जुड़ा हुआ है। पुराणकाव्य और चरितकाव्य संवेतात्मक हैं। यहां जैन महापुरुषों के चरित का आख्यान करते हुए आध्यात्मिकता और काव्यत्व का समन्वय किया गया है। समूचे जैन साहित्य में ये दोनों तत्त्व आपादमग्न हैं। अपभ्रंश का आदिकाल भरत के नाट्यशास्त्र से प्रारम्भ होता है जहाँ छन्दः प्रकरण में उकार प्रवृत्ति देखी जाती है (मोरल्लउ, नच्चतंउ)। आगे चलकर कालिदास तक आते-आते इस प्रवृत्ति का और विकास हुआ। उनके विक्रमोर्वशीय में अपभ्रंश की विविध प्रवृत्तियां परिलक्षित होती हैं। संस्कृत-प्राकृत के छन्द तुकान्त नहीं थे। जबकि अपभ्रंश के छन्द तुकान्त मिलने लगे। गाथा से दोहा का विकास हुआ। दण्डी के समय तक अपभ्रंश साहित्य अपने पूर्ण
SR No.022771
Book TitleHindi Jain Sahityame Rahasya Bhavna
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPushplata Jain
PublisherSanmati Prachya Shodh Samsthan
Publication Year2008
Total Pages516
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size32 MB
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