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आदिकालीन हिन्दी जैन काव्य प्रवृत्तियाँ
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तुउं-तू-तू-तइँ-तै, तुम्ह - तुम ( मध्यमपुरुष ), तउ - तो तोहि-तोर-तुज्झ (सम्बन्ध), ओ-ओइ-ओहु ( अन्य पु.), अप्पण-आपन, आपु, (निजवाचक), एह - यह-ये- इस- इन (निकट नि - सं.), जो (सम्बन्ध वाचक), काई - कवण - कौन ( प्रश्न), कोउ, कोऊ, (अनि.) ।
सर्वनामिक विशेषण - जइसो, तइसो, कइसो, अइसो. एहउ । क्रमवाचक-पढम, पहिल, बिय, दूज, तीज आदि । क्रिया - संहिति से व्यवहिति की ओर बढ़ी।
९.
१०. तिङन्त तद्भव - अच्छि, आछै, अहै-है; हुतो - हो,
था।
११. सामान्य वर्तमान काल - ऐ करै, ऐ करे, औं (वंदौं) रूप।
१२. सामान्य भविष्यत काल-करिसइ, करिसहुँ, करिहइ, करहिउँ आदि ।
१३.
१४.
१५.
वर्तमान आज्ञार्थ - सुमरि, बिलम्बु, करे जैसे रूप ।
कृदन्त-तद्भव-करत, गयउ, कीनो, कियो आदि जैसे रूप । अव्यय-आज, अबहिं, जावं, कहॅ, जहॅ, नाहिं, लौं, जइ आदि ।
अपभ्रंश साहित्य का हिन्दी साहित्य पर प्रभाव
अपभ्रंश के बाद मरुगुर्जर भाषा का भी विकास हुआ है जिस पर अपभ्रंश का प्रभाव दृष्टव्य है। इसकी लगभग सभी विधाएं लोक साहित्य से ग्रहीत हैं। पश्चिमी अवहट्ट में लिखा गया साहित्य ही मरु गुर्जर या पुरानी हिन्दी का साहित्य है । उसमें हिन्दी, गुजराती और