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________________ हिन्दी जैन साहित्य में रहस्यभावना प्रारम्भिक हिन्दी और उत्तरकालीन हिन्दी पर इसका बहुत प्रभाव पड़ा हुआ है। हिन्दी का ढांचा अपभ्रंश की देन है। हिन्दी का परसर्ग प्रयोग, निर्विभक्तिक रूपों की बहुलता, कर्मवाच्य तथा भाववाच्य प्रणाली के बीज अपभ्रंश में ही देखे जाते हैं। परवर्ती अपभ्रंश में स्थानीय भाषिक तत्त्व बढ़ते गये और लगभग तेरहवीं शती तक आते-आते पूर्व-पश्चिम देशवर्ती बोलियां स्वतन्त्र रूप से खड़ी हो गई । गुजराती, मराठी, बंगला, राजस्थानी, ब्रज, मैथिली आदि क्षेत्रीय भाषाएँ इसी का परिणाम हैं। डॉ. नामवरसिंह ने इन भाषाओं के विकास में अपभ्रंश के योगदान की चर्चा की है। उनके अनुसार यह योगदान निम्नलिखित रूप में देखा जा सकता है, विशेषतः मध्यकालीन हिन्दी के क्षेत्र में । निर्विभक्ति पदों का उपयोग । उ विभक्ति का प्रयोग जिसका खड़ी बोली में लोप हो गया । करण, अधिकरण के साथ ही धर्म, सम्प्रदान और अपादान में भी हि - हिं विभक्ति का प्रयोग । 66 १. २. ४. ६. न्हि-न्ह विभक्ति का प्रयोग सामान्यतः कर्म, सम्प्रदान, करण, अधिकरण और सम्बन्ध कारकों में । परसर्गो में सम्बन्ध कारक केरअ, केर, कर, का, की, अधिकरण कारक मज्झे, मज्झु, माँझ, सम्प्रदान कारक केहि, रेसिं, तण प्रमुख हैं। प्रयत्न लाघव प्रवृत्ति के कारण इन परसर्गो में घिसाव भी हुआ है । सर्वनाम-हऊँ और हौं (उत्तम पु. एकवचन), हम (उ.पु. बहुव.), मो और मोहिं, मुज्झ - मुज्झ (सम्प्रदाय), तुहुँ,
SR No.022771
Book TitleHindi Jain Sahityame Rahasya Bhavna
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPushplata Jain
PublisherSanmati Prachya Shodh Samsthan
Publication Year2008
Total Pages516
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size32 MB
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