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आदिकालीन हिन्दी जैन काव्य प्रवृत्तियाँ
65 साथ वर्तमान कालिक तिङ् प्रत्ययों का प्रयोग होता है। 'ह' रूपों के साथ वर्तमान कालिक तिङ्प्रत्ययों का ही प्रयोग होता है।
(६) भूतकाल के लिए निष्ठा प्रत्यय से विकसित कृदन्त रूप कअ, कहिअ, हुव आदि रूप उपलब्ध होते हैं।
(७) कर्मणि प्रयोगों में इज्ज (गणिज्जइ, ण्हाइज्जइ) के साथ अन्य तिङ् प्रत्ययों को जोड़ दिया जाता है। . ७. परसर्गोका उदय
(१) अपभ्रंश के प्रमुख परसर्ग हैं - होन्त-होन्तउ-होन्ति, ठिउ, केरअ-केर और तण। सप्तमी वाले रूप के साथ 'ठिउ' का प्रयोग होने पर पंचम्यर्थ की प्रतीति होती है। केर या केरअ परसर्ग का प्रयोग किसी वस्तु से सम्बद्ध होने के अर्थ में पाया जाता है। षष्ठी विभक्ति के परसर्ग के रूप में इसका प्रयोग अपभ्रंश की ही विशेषता है। करणकारक के लिए सहुं, तण, सम्प्रदान के लिए केहि, रेसि अपादान के लिए होन्तउ, होनत, थिउ, सम्बन्ध के लिए केरउ, केर, कर, की, का और सप्तमी के लिए मज्झ, महँ आदि परसर्गो का प्रयोग प्रारम्भ हो गया। ८. वाक्य रचना
(१) कारक-प्रत्यय अधिक देखा जाता है। षष्ठी का प्रयोग सभी कारकों के लिए हुआ है। सप्तमी का प्रयोग कर्म तथा करण के लिए पंचमी विभक्ति का प्रयोग करणकारक के लिए तथा द्वितीया का प्रयोग अधिकरण के लिए देखा जाता है।
(२) अपभ्रंश में निर्विभक्तिक पदों के प्रयोग के कारण वाक्य रचना निश्चित-सी हो चली है।