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६. धातु रूप
हिन्दी जैन साहित्य में रहस्यभावना
(१) अपभ्रंश में आत्मने पद का प्रायः लोप हो गया है ।
(२) दस गणों का भेद समाप्त हो गया। सभी धातु भ्वादिगण के धातुओं की तरह चलते हैं।
(३) लकारों में भी कमी आई। भूतकाल के तीनों लकार अदृष्ट हो गये तथा हेतु-हेतु मद्भूत भी नहीं दिखता। इनके स्थान पर भूतकालिक कृदन्त रूपों का प्रयोग पाया जाता है। मुख्यतः लट्, लोट् और लृट् लकार बच गये।
(४) णिजंत रूप, नाम धातु, च्वि रूप तथा अनुकरणात्मक क्रिया रूप भी पाए जाते हैं। धातु रूपों में वर्तमानकाल के उत्तम पुरुष एकवचन में 'उ' वाले रूप करऊँ, बहुवचन में 'मो' व 'हुँ' वाले रूप; मध्यम पुरुष के एकवचन बहुवचन में क्रमशः सि - हि तथा हु वाले रूप; मध्यम पुरुष के एकवचन में इ-एइ (करइ-करेइ) और बहुवचन में न्ति-हिं (करंति-करहिं ) विभक्ति चिन्ह पाए जाते हैं । आज्ञार्थक क्रिया रूपों में उत्तम पुरुष के रूप नहीं मिलते। मध्यम पुरुष एकवचन में विविध रूप पाए जाते हैं। शून्य रूप या धातुरूप (कर) उ, इ, ह, हि वाले रूप (करि, करु, करह, करहि, करिहि), बहुवचन में ह, हु, हो वाले रूप (करह, करहु, करहों) पाए जाते हैं। अन्य पुरुष एकवचन में 'उ' चिन्ह (करउ) पाया जाता है ।
(५) विध्यर्थ में ज्ज का प्रयोग मिलता है - करिज्जउ, करिज्जहि, करिज्जहु आदि । इसका प्रयोग वर्तमान कालिक रूपों पर आधृत है। इन रूपों के बीच में स, ह, का प्रयोग होता है। 'ह' रूपों के