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________________ 63 आदिकालीन हिन्दी जैन काव्य प्रवृत्तियाँ (५) तृतीया तथा सप्तमी एकवचन के रूप मिश्रित हो गये हैं। इसमें प्राकृत 'एण' वाले रूपों के अतिरिक्त 'इ' (पुत्ते) तथा 'इ' (पुत्तइ) वाले रूप भी मिलते हैं । (६) चतुर्थी, पंचमी तथा षष्ठी के रूप 'हु' तथा 'हो' चिन्ह वाले 'पुत्तहु', 'पुत्तहो' मिलते हैं। साथ ही 'पुत्तरस' रूप भी देखा जाता है । (७) तृतीया तथा सप्तमी बहुवचन में 'हि' वाले रूप अधिक पाये जाते हैं, 'पुत्तहिं' (पुत्तहि ) । तृतीया में 'एहिं' वाले रूप भी मिलते हैं - ‘पुत्तेहि’ । (८) पंचमी और षष्ठी बहुवचन में पुत्तह, पुत्तह जैसे रूप मिलते हैं । (९) नपुंसक लिंग के प्रथम एवं द्वितीया बहुवचन में 'इ-ई' (फलाइ-फलाइं) वाले रूप होते हैं। (१०) कारक में केवल तीन समूह शेष रह गये - अ. प्रथमा, द्वितीया, संबोधन, ब. तृतीया, सप्तमी और स. चतुर्थी, पंचमी और षष्ठी । ५. सर्वनाम - (१) 'अस्मत्' शब्द के प्रथमा एकवचन में 'हउ', मह - मइ' और बहुवचन में अम्हे, अम्हई, द्वितीया । (२) तृतीया व सप्तमी में मए - मई, पंचमी - षष्ठी में महुमज्झु, रूप मिलते हैं। युष्मत् शब्द के प्रथमा के रूप तुहु-तुहुं, द्वितीया तृतीया के पपई तई; पंचमी - षष्ठी में तुह तुज्झ, तुज्झु तथा - तत्-यत् के अपभ्रंश रूप सो-जो मिलते हैं।
SR No.022771
Book TitleHindi Jain Sahityame Rahasya Bhavna
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPushplata Jain
PublisherSanmati Prachya Shodh Samsthan
Publication Year2008
Total Pages516
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size32 MB
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