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________________ 62 हिन्दी जैन साहित्य में रहस्यभावना ३. पद रचना (१) अपभ्रंश में व्यंजनांत (हलन्त) शब्द नहीं मिलते हैं। जैसे मण (मनस्), जग (जगद्), अप्पण (आत्मन्) । इसलिए अपभ्रंश के सभी शब्द स्वरांत होते हैं । (२) लिंग की कोई विशेष व्यवस्था नहीं रहती, फिर भी साधारणतः परम्परा का ध्यान रखा जाता रहा है। (३) वचन दो ही होते हैं । ४. विभक्तियाँ और शब्द रूप (१) प्राकृत में चतुर्थी और षष्ठी का अभेद स्थापित हुआ था पर अपभ्रंश में इसके साथ ही द्वितीया और चतुर्थी, सप्तमी और तृतीया, पंचमी तथा षष्ठी के एक वचन तथा प्रथमा एवं द्वितीया का भेद समाप्त हो गया । (२) प्रथमा एकवचन में प्राकृत का 'ओ' वाला रूप पुत्तो तथा 'उ' वाले रूप पुत्त, पुत्तुउ रूप मिलते हैं। कहीं-कहीं शून्य विभक्ति रूप 'पुत्त' भी मिलता है। (३) प्रथमा तथा द्वितीया एकवचन में 'उ' विभक्ति चिन्ह मिलता है। कहीं-कहीं 'अ' वाला रूप 'पुत्त' तथा शुद्ध प्रतिपादित रूप 'पुत्त' भी मिल जाता है । (४) प्रथमा - द्वितीया विभक्ति के बहुवचन रूपों में -आ' वाले रूप 'पुत्ता' तथा शून्य रूप 'पुत्त' मिलते हैं ।
SR No.022771
Book TitleHindi Jain Sahityame Rahasya Bhavna
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPushplata Jain
PublisherSanmati Prachya Shodh Samsthan
Publication Year2008
Total Pages516
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size32 MB
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