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आदिकालीन हिन्दी जैन काव्य प्रवृत्तियाँ
61 (२) ऋ, लु, ऐ, औ का अभाव है। ऐ, औ की जगह अइ, अउ उच्चरित होने लगा।
(३) 'य' श्रुति का प्रयोग अपभ्रंश की अन्यतम विशेषता है जैसे णायकुमार, जुयल । 'व' श्रुति भी जहां कहीं मिल जाती है। जैसेरूवंति, सुहव, (रुदंति, सुभग)।
(४) अन्त्य स्वर की हृस्वीकरण-प्रवृत्ति। जैसे-कोइ, होइ। २. व्यंजन ध्वनियाँ
__ (१) स्वर के मध्य रहने वाले क्, त्, प्, का ग्,द्, ब्, हो जाता है तथा ख्, थ्, फ, का घ्, ध्, भ्, हो जाता है। जैसे मदकल (मयगल), विप्रियकारक (विप्पियगारउ), सापराध (सावराह)।
(२) पद के आदि में संयुक्त व्यंजन नहीं रहता, मात्र, ग्रह, ह्म, ल्ह संयुक्त ध्वनियाँ ही आदि में आ सकती हैं। इसकी पूर्ति के लिए हेमचन्द ने रेफ' का आगम माना है। जैसे व्यास (ब्रासु), दृष्टि (दिट्ठि)। पर इनका प्रयोग कम मिलता है।
(३) श और ष का प्रयोग प्रायः समाप्त हो गया। य के स्थान पर 'ज' का प्रयोग हुआ है।
(४) संयुक्त व्यंजन की संख्या मात्र ३१ रह गई।
(५) मध्यवर्ती 'म' का 'बँ' हो जाता है। प्रायः 'न' तन्सम शब्दों में सुरक्षित रहता था परतद्भव रूपों में एक साथ 'म', 'व' दोनों रूप मिलते हैं। जैसे गाम-गाँव, सामल-साँवल।
(६) अन्त्य स्वर का हस्वीकरण।