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________________ 55 काल-विभाजन एवं सांस्कृतिक पृष्ठभूमि अविरल धारा में उनका अध्यात्म जीवन सदैव रहस्यभावना में आप्लावित रहा है। इसी यात्रा में उन्होंने नई-नई विधाओं का सृजन किया, भाषा का विकास किया जिन्हें उत्तरकालीन सभी कवियों ने साभार स्वीकारा। यह तथ्य आगे के पृष्ठों में स्पष्ट होता चला जावेगा। १२-१३वीं शताब्दी में अपभ्रंश से विकसित मरु-गुर्जर भाषा बोली एक नवजात शिशु के समान थी जिसका कोई स्थिर रूप नहीं था। इसके अनेक स्थानीय और परिवर्तनशील रूप प्रचलित थे। राजस्थानी, व्रज और बुन्देली को भी इसी रूप में देखा जा सकता है। इन बोलियों में अपभ्रंश भाषा और शैली का प्रयोग समानान्तर रूप से होता रहा है। इनका अध्ययन भी हमने अपनी परिधि में रखा है। ये भाषायें/बोलियां आधुनिक देशी भाषाओं को जोड़ने वाली महत्त्वपूर्ण कडी हैं। इन भाषाओं को बोलने वाले व्यापारी वर्ग ने भाषात्मक एकता को सुदृढ किया है। मध्यकाल और उसके बाद इन जनभाषाओं ने अपने-अपने प्रदेशों में स्वतन्त्र रूप से विकास किया पर शब्द और प्रयोग में अधिक अन्तर नहीं आ पाया। सांस्कृतिक और धार्मिक एकता भी उसमें एक सबल कारण रहा है। राजनीतिक अस्थिरता के बावजूद जैनाचार्य साहित्यिक संवर्धन में जुटे रहे। सरस्वती की उपासना में वे कभी पीछे नहीं रहे। इतना ही नहीं, सरस्वती भण्डारों की भी स्थापनाकर प्रतियों का लेखन और उनकी सुरक्षा का भी यथाशक्य प्रबंध किया। १९वीं शताब्दी के बाद राजस्थानी, गुजराती और बुन्देली भाषाओं का स्वतन्त्र विकास होने लगा। फिर भी उनमें पर्याप्त समानता बनी रही। यह समानता दिगम्बर और श्वेताम्बर दोनों सम्प्रदायों के साहित्य में उपलब्ध है। दिगम्बर साहित्य की भाषा पर
SR No.022771
Book TitleHindi Jain Sahityame Rahasya Bhavna
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPushplata Jain
PublisherSanmati Prachya Shodh Samsthan
Publication Year2008
Total Pages516
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size32 MB
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