________________
48
हिन्दी जैन साहित्य में रहस्यभावना ३. बौद्धधर्म
सप्तम शताब्दी के आस-पास तक बौद्धधर्म हीनयान और महायान के रूप में देश-विदेशों में बंट गया था। साधारणतः दक्षिण में हीनयान और उत्तर में महायान का जोर था। भारत में उस समय महायानी परम्परा अधिक फली-फूली। महाराजा हर्षवर्धन संभवतः पहले हीनयानी थे और बाद में महायानी बने। यूनसांग ने इसी के राज्य काल में भारत यात्रा की थी। इस समय बौद्धधर्म में अवनति के लक्षण दिखाई देने लगे थे। नालन्दा, बलभी आदि स्थान बौद्धधर्म के केन्द्र बन चुके थे। हर्ष के बाद बौद्धधर्म का पतन प्रारंभ हो गया।
यहां तक आते-आते बुद्ध में लोकोत्तर तत्त्व निहित हो गये। श्रद्धा और भक्ति का आन्दोलन तीव्रतर हो गया। अवदान साहित्य और वैपुल्य सूत्र का निर्माण हो चुका था। सौत्रांतिक और वैभाषिक तथा योगाचार-विज्ञानवाद और शून्यवाद-माध्यमिक सम्प्रदाय अपने दार्शनिक आयामों के साथ बढ़ रहे थे। असंग, वसुबन्धु, दिङ्नाग, धर्मकीर्ति, प्रज्ञाकरगुप्त, नागार्जुन, आर्यदेव, शान्तरक्षित आदि आचार्य अपनी साहित्यिक प्रतिभा का प्रदर्शन कर रहे थे। आत्मवाद अव्याकृत से लेकर अनात्मवाद अथवा निरात्मवाद बन गया। साधक प्रतीत्य-समुत्पाद से स्वभाव शून्यता और गुह्य साधना की ओर बढ़ने लगे। त्रिकायवाद का विकास हो गया। पारमितायें भी यथासमय बढ़ने-कमने लगीं।
महायानी सम्प्रदाय में इस प्रकार क्रान्तिकारी परिवर्तन हुये। शाक्त सम्प्रदाय का उसपर विशेष प्रभाव पड़ा। तदनुसार तंत्र, मंत्र,