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काल-विभाजन एवं सांस्कृतिक पृष्ठभूमि प्रारम्भ किया। इस समय तक दिल्ली, जयपुर आदि स्थानों पर भट्टारक गद्दियां स्थापित हो चुकी थी। सूरत, भडोंच, ईडर आदि अनेक स्थानों पर भी इन भट्टारकीय गद्दियों का निर्माण हो चुका था। आचार्य सकलकीर्ति, ब्रह्मजयसागर आदि विद्वान इसी समय हुए। इसी काल में प्रबन्धों और चरितों को सरल संस्कृत और हिन्दी में लिखकर जैन साहित्यकारों ने साहित्य के क्षेत्र में एक नयी परम्परा का सूत्रपात किया जिसका प्रभाव हिन्दी साहित्य पर काफी पडा।
मुगलों के आक्रमणों से यद्यपि जैन साहित्य की बहुत हानि हुई फिर भी अकबर (१५५६-१६०५ ई.) जैसे महान शासकों ने जैनाचार्यों को सम्मानित किया। अध्यात्म शैली के प्रवर्तक बनारसीदास,पांडे रूपचन्द, पांडे राजमल, ब्रह्मरायमल, कवि परमल आदि हिन्दी के जैन विद्वान इसी समय हुए। साहू टोडरमल अकबर की टकसाल के अध्यक्ष थे। अकबर के राज्य काल में हिन्दी जैन साहित्य की प्रभूत अभिवृद्धि हुई। जहांगीर के समय में भी रायमल्ल, ब्रह्मगुलाल, सुन्दरदास, भवगतीदास आदि अनेक प्रसिद्ध हिन्दी जैन साहित्यकार हुए। रीतिकालीन साहित्य परम्परा के विपरीत भैया भगवतीदास,आनंदघन, लक्ष्मीचन्द्र, जगतराय आदि जैन कवियों ने शान्त रस से परिपूर्ण विरागात्मक आध्यात्मिक साहित्य का सृजन किया । एक ओर जहां जैनेतर कवि तत्कालीन परिस्थितियों के वंश मुगलों और अन्य राजाओं को श्रृंगार और प्रेम वासना के सागर में डुबो रहे थे, वहीं दूसरी ओर जैन कवि ऐसे राजाओं की दूषित वृत्तियों को अध्यात्म और वैराग्य की ओर मोड़ने का प्रयत्न कर रहे थे। जैनधर्म, साहित्य और संस्कृति की यह अप्रतिम विशेषता थी। शान्तरस उसका अंगी रस था। समूचा साहित्य उससे आप्लावित रहा है।