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हिन्दी जैन साहित्य में रहस्यभावना कला के केन्द्र नष्ट कर दिये गये। चोल राजा (९८५-१०१६ ई.) के समय यह अत्याचार कम हुआ। बाद में चालुक्य वंश ने जैन कला और साहित्य का प्रचार-प्रसार किया। इसी समय जैन महाकवि जोइन्दू, जटासिंहनन्दि, रविषेण, पद्मनन्दि, धनंजय, आर्यनन्दि, प्रभाचन्द्र, परवादिमल्ल, अनन्तवीर्य, विद्यानन्द आदि प्रसिद्ध जैनाचार्य हुए हैं। जिन्होंने तमिल, कन्नड, संस्कृत, प्राकृत और अपभ्रंश में जैन साहित्य का निर्माण किया। चामुण्डराय भी इसी समय हुआ जिसने श्रवणबेलगोल में ९७८ ई. में गोमटेश्वर बाहुबलि की विशाल उत्तुंग प्रतिमा निर्मित करायी।
राष्ट्रकूट वंश जैनधर्म का विशेष आश्रयदाता रहा है। स्वयं, वीरसेन, जिनसेन, गुणभद्र, महावीराचार्य, पाल्यकीर्ति, पुष्पदन्त आदि जैनाचार्यो ने इसी राज्य काल में जैन साहित्य को रचा। कल्याणी के कल्चुरीकाल में वासव ने जैनधर्म के सिद्धान्त और शैवधर्म की कतिपय परम्पराओं को मिश्रणकर १२ वीं शती में लिंगायत धर्म की स्थापना की। उन्होंने जैनों पर कठोर अत्याचार किये। बाद में वैष्णवों ने भी उनके मन्दिर और पुस्तकालय जलाये। फलतः अधिकांश जैन शैव अथवा वैष्णव बन गये।
अरबों, तुर्को और मुगलों के भीषण आक्रमणों से जैन साहित्य और मन्दिर भी बच नहीं सके। उन्हें या तो मिट्टी में मिला दिया गया अथवा वे मस्जिदों के रूप में परिणित कर दिये गये। इन्हीं परिस्थितियों के प्रभाव से भट्टारक प्रथा का विशेष अभ्युदय हुआ। मूर्ति पूजा का भी विरोध हुआ। लोदी वंश के राज्य काल में तारण स्वामी (१४४८ - १५१५ ई.) हुए जिन्होंने मूर्तिपूजा का निषेध कर 'तारण तरण' पंथ