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________________ काल-विभाजन एवं सांस्कृतिक पृष्ठभूमि 45 उत्तरकाल में यहां जैनधर्म का ह्रास हो गया। कलचुरीवंश यद्यपि शैव धर्मावलम्बी था पर उसने जैनधर्म और कला को पर्याप्त प्रतिष्ठित किया। कुल्पाद, रामगिरि, अचलपुर, जोगीमारा, कुण्डलपुर, कारंजा, एलोरा, धाराशिव, खनुपद्मदेव आदि जैनधर्म के केन्द्र थे । गुजरात में भी प्रारम्भ से ही जैनधर्म का प्रचार-प्रसार रहा है। मान्यखेट के राष्ट्रकूट राजा जैनधर्म के प्रति अत्यन्त उदार थे। विशेषतः अमोघवर्ष और कर्क ने यहां जैनधर्म को बहुत लोकप्रिय बनाया । गुजरात-अन्हिलपाटन का सोलंकी वंश भी जैनधर्म का आश्रयदाता रहा। आबू का कलानिकेतन इस वंश के भीमदेव प्रथम के मंत्री और सेनानायक विमलशाह ने १०३२ ई. में बनवाया। राजा जयसिंह ने अन्हिल - पाटन को ज्ञान केन्द्र बनाकर आचार्य हेमचन्द्र को उसका कार्यभार सौंपा। हेमचन्द्र ने द्वयाश्रय काव्य, सिद्धम व्याकरण आदि वीसों ग्रन्थ तथा वाग्भट्ट ने अलंकार ग्रन्थ इसी राजा के शासनकाल में लिखे। कुमारपाल इसी वंश का शासक था। वह निर्विवाद रूप से जैनधर्म का अनुयायी था। हेमचन्द्र आचार्य उसके गुरु थे और भी अनेक मन्त्री, सामन्त आदि जैन थे। कुमारपाल के मन्त्री वस्तुपाल और तेजपाल का विशेष सम्बन्ध आबू के जैन मन्दिरों के निर्माण से जुडा हुआ है। सिन्ध, काश्मीर, नेपाल, बंगाल में पालवंश का साम्राज्य रहा। वह बौद्ध धर्मावलम्बी था। उसके राजा देवपाल ने तो जैन कला-केन्द्र भी नष्ट-भ्रष्ट किये। बंगाल में जैनधर्म का अस्तित्व १११२ वीं शती तक विशेष रहा है। दक्षिण में पल्लव और पाल्य राज्य में प्रारम्भ में तो जैनधर्म उत्कर्ष पर रहा परन्तु शैवधर्म के प्रभाव से बाद में उनके साहित्य और
SR No.022771
Book TitleHindi Jain Sahityame Rahasya Bhavna
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPushplata Jain
PublisherSanmati Prachya Shodh Samsthan
Publication Year2008
Total Pages516
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size32 MB
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