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काल-विभाजन एवं सांस्कृतिक पृष्ठभूमि
43 विदेशी आक्रमणों के बावजूद हिन्दी साहित्य की परम्परा अपने पूर्ववर्ती संस्कृत पालि, प्राकृत और अपभ्रंश भाषा और साहित्य के आधार पर फलती-फूलती रही। तात्कालिक परिस्थितियों की पृष्ठभूमि में भक्ति साहित्य का निर्माण हुआ। उसकी भक्ति धारा दक्षिण से उत्तर भारत में पहुंची। भक्ति की यह धारा सगुण मार्गी थी। निर्गुण भक्ति का प्रचार मुस्लिम शासन काल में अधिक हुआ क्योंकि इस्लाम का उससे किसी प्रकार का विरोध नहीं था। ये निर्गुण साधक अपने ब्रह्म को अपने ही भीतर देखते थे। समाज और राष्ट्र से उन्हें कोई मतलब नहीं था। निर्गुणियों से पूर्व नाथ और सिद्धों के विधि विधानपरक कर्मकाण्ड से जनता को कोई प्रेरणा नहीं मिल रही थी। हठयोगी सन्त भी लोक-संग्रह का मार्ग नहीं दिखा सकते थे। अतः ईशोपनिषद् के समुच्चयवाद का पुनर्सघटन रामनुजाचार्य ने किया। बाद में उत्तरभारत में रामानंद, नाथ और तुलसी आदि ने इसका प्रचार किया। इस समुच्चय में भक्ति, ज्ञान और कर्म तीनों का समन्वय था। इस भक्ति आन्दोलन ने जन समाज को युगवाणी, युग पुरुष और युग धर्म दिया। २.जैनधर्म
मध्यकाल तक आते-आते जैनधर्म स्पष्ट रूप से दिगम्बर और श्वेताम्बर परम्पराओं में विभक्त हो गया था। दोनों परम्पराओं और उनके आचार्यो को अनेक राजाओं का आश्रय मिला और फलतः धार्मिक साहित्य, कला और संस्कृति का विकास पर्याप्त मात्रा में हुआ। गुर्जर प्रतिहार राजा वत्सराज के राज्य में उद्योतनसूरि ने ७७८ ई. में