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हिन्दी जैन साहित्य में रहस्यभावना
समासत : मध्यकालीन समग्र इतिहास को वैदिक संस्कृति के सन्दर्भ में देखने से यह स्पष्ट हो जाता है कि सप्तम - अष्टम शती में चमत्कार का प्रभाव लगभग हर समाज और धर्म पर पड़ रहा था। नवम् शती में चमत्कार के माध्यम से ही तंत्र सम्प्रदाय का जन्म काश्मीर में हुआ । इसकी दो शाखायें हुई स्पन्द और प्रत्यभिज्ञ । स्पन्द शाखा को “शिव सूत्र” कहा जाने लगा जिसके सिद्धान्तों का प्रतिपादन वसुगुप्त (८५०-९०७) ने किया । तदनुसार शिव सृष्टि के कर्ता हैं। पर उसके भौतिक कारण नहीं। प्रत्यभिज्ञा की स्थापना में सौमानंद (सं. ९०७) का विशेष हाथ है। उन्होंने इसे ध्यान्यालोक लोचन में अधिक स्पष्ट किया है। तदनुसार संसारी जीव पृथक् होते हुये भी शिव से अपृथक् है । कालान्तर में शैवमत ने महायान से लाभ उठाया और बुद्ध तथा शिव को एक-सा बना दिया । नेपाल में प्राप्त महायानी बौद्ध मूर्तियों तथा योगी शिव मूर्तियों में अंतर करना कठिन हो जाता है। बाद में तान्त्रिक और शैव सिद्धान्तों के साथ शक्ति का संबंध जुड गया और शाक्त मत प्रारंभ हो गया। यही शक्ति सृष्टि का कारण बनी। शक्ति श्वेत और श्याम वर्ण के रूप में प्रतिष्ठित हुई। श्वेत रूप में उमा और श्याम रूप में काली, चण्डी, चामुण्डा आदि भयकारिणी देवियों की स्थापना हुई । इस शाक्त मत में दक्षिणाचार और वामाचार भेद हुए। वामाचार की शक्ति साधना में पंच मकारों का उपयोग किया जाता था । उसमें योग वासना के माध्यम से सिद्धि प्राप्त की जाती थी। पशुबलि आदि भी दी जाती थी। मध्यकाल में ये दोनों प्रवृत्तियां हिंसा तथा विलास के रूप में दिखाई देती हैं। उत्तरकाल में इसी में से अनेक उप-सम्प्रदायों का जन्म हुआ जिससे हिन्दी साहित्य अप्रभावित नहीं रहा ।
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