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काल-विभाजन एवं सांस्कृतिक पृष्ठभूमि
सम्प्रदाय का विशेष जोर उत्तर भारत में रहा है। इसके प्रसिद्ध आचार्य नैयायिक उद्योतकर के प्रशस्तपाद आदि अनेक ग्रंथ उपलब्ध हैं । लकुलीश सम्प्रदाय गुजरात और राजस्थान में अधिक था । लकुलीश की वहां मूर्तियां भी मिली हैं। कापालिक सम्प्रदाय भी उत्तर भारत में मिलता रहा। पर उसका कोई महत्त्वपूर्ण साहित्य उपलब्ध नहीं हुआ। उसकी साधना पद्धति बडी बीभत्स और अश्लील थी। उसमें नरबली, सुरापान, यौन सम्बन्ध, मांस भक्षण जैसे गर्हित तत्त्व अधिक प्रचलित थे। शैव सम्प्रदाय के विशिष्ट सिद्धान्त थे । पशुपति शिव अखिल विश्व के स्वामी है। मनुष्य पशु है, पर उसका शरीर जड और आत्मा चेतन है। यह आत्मा पाश से बन्धा हुआ है। पाश तीन प्रकार के हैं आणव (अज्ञान), २. कर्म, ३. माया । शिव की कृपा से शक्ति प्रकट होती है और पाशों का विनाश होकर मोक्ष प्राप्त होता है जहां शिव और आत्मा अद्वैत बन जाते हैं। मध्यकालीन शैवाचार्य संबन्दर और अप्यर ने जैनधर्म को दक्षिण से समाप्त करने का भारी प्रयत्न किया ।
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शैव सम्प्रदाय और शाक्त सम्प्रदाय का विशेष संबंध रहा है। शक्ति का संबंध विशेषतः तंत्र-मंत्र से रहा है। शिव की पत्नी दुर्गा शक्ति की प्रतीक है। उसी के माध्यम से संसार की सृष्टि आदि कार्य होते हैं। वाम मार्ग की यौगिक साधनायें भी शाक्त सम्प्रदाय से सम्बद्ध
है।
शैव सम्प्रदाय का नाथ समप्रदाय उत्तरभारत, पंजाब तथा राजस्थान आदि प्रदेशों में विशेष प्रचलित था। पहले उसका सम्बन्ध कापालिकों से था पर बाद में गोरखनाथ ने उसे मुक्त कराया। इस सम्प्रदाय में हठयोग-साधना विशेष रूप से प्रचलित थी। तान्त्रिक वैदिक और बौद्ध साधक नाथ सम्प्रदाय से प्रभावित थे । सोम, सिद्ध, कौल आदि सम्प्रदाय भी इसी के अंग हैं ।
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