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काल-विभाजन एवं सांस्कृतिक पृष्ठभूमि
आठवीं शती के बाद तो अपभ्रंश भाषा के भेदों में गिनी जाने लगी। रुद्रट, राजशेखर जैसे कवियों ने उसका साहित्यिक समादर किया । पुरुषोत्तम (११वीं शती) के काल तक पहुंचते-पहुंचते उसका प्रयोग शिष्ट प्रयोग माना जाने लगा। हेमचन्द्र ने तो अपभ्रंश की साहित्य समृद्धि को देखकर उसका परिनिष्ठित व्याकरण ही लिख डाला। अपभ्रंश अथवा देशी भाषा की लोकप्रियता का यह सर्वोत्कृष्ट उदाहरण माना जा सकता है ।
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वि.सं. १४०० के बाद कवियों को प्रेरित करने वाले सांस्कृतिक आधार में वैभिन्न्य दिखाई पडता है। फलस्वरूप जनता की मनोवृत्ति और रुचि में परिवर्तन होना स्वाभाविक है। परिस्थितियों के परिणामस्वरूप जनता की रुचि जीवन से उदासीन और भगवद्भक्ति में लीन होकर आत्म कल्याण करने की ओर उन्मुख थी। इसलिए इस विवेच्य काल में कवि भक्ति और अध्यात्म संबंधी रचनायें करते दिखाई देते हैं। जैन कवियों की इस प्रकार की रचनायें लगभग वि.सं. १९०० तक मिलती हैं। अतः इस समूचे काल को मध्यकाल नाम देना ही अनुकूल प्रतीत होता है। आ. शुक्ल ने भी आदिकाल (वीरगाथाकाल), पूर्वमध्यकाल (भक्तिकाल), उत्तरमध्यकाल ( रीतिकाल ) और आधुनिक काल नाम रखे हैं । आ. शुक्ल ने जैन कवियों की भक्ति और अध्यात्म संबंधी रचनाओं को नहीं टटोला या उन्हें देखने नहीं मिली । अतः मात्र जैनेतर हिन्दी कवियों की श्रृंगारिक और रीतिबद्ध रचनायें देखकर ही मध्यकाल के उपर्युक्त दो भाग किये । चूंकि जैन कवियों द्वारा रचित जैन काव्य की भक्ति रूपी अजस्रधारा वि.सं. १९०० तक बहती है । अतः हमने इस सम्पूर्णकाल को मध्यकाल के नाम से अभिहित किया है। यद्यपि इस काल में जैन