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________________ 30 हिन्दी जैन साहित्य में रहस्यभावना रचना-स्तर, राजनीतिक घटनाएं आदि अनेक आधारों को प्रस्थापित किया गया पर वे कोई भी अपने को निर्दोष सिद्ध नहीं कर सके। उनमें सर्वाधिक निर्दोषता आदिकाल के साथ ही जुटी हुई है जहां सब कुछ अन्तर्भुक्त हो जाता है। अतः यहां राहुल सांकृत्यायन तथा डा. हजारी प्रसाद द्विवेदी के विचारों का समन्वय कर हिन्दी के उस काल-खण्ड का नामनिर्धारण आदिकाल' अधिक उपयुक्त प्रतीत होता है। जैसा पीछे लिखा जा चुका है, हमने आदिकाल की सीमा का निर्धारण लगभग सप्तम शताब्दी से चौदहवीं शताब्दी तक किया है। इसे दो भागों में विभाजित किया जा सकता है-पहला अपभ्रंश बहुल हिन्दी काल और दूसरा प्रारंभिक हिन्दी काल। प्रथम काल में भाषासाहित्यिक अपभ्रंश से विकसित होकर देशी भाषा की ओर बढने लगी थी। स्वयंभू के पूर्ववर्ती कवियों ने जिसे अपभ्रंश कहा, स्वयंभू ने उसे "देसी भासा उभय-तडुज्जल'' कहकर देसी भासा' संज्ञा देना अधिक उचित समझा । उत्तरकालीन कवि लक्ष्मणदेव ने णेमिणाहचरिउ में 'णअ सक्कउ पाउअ देस भास' कहकर इसी का समर्थन किया है । संभव है, अपभ्रंश की लोकप्रियता को ही देखकर उसके विकसित स्वरूप को विद्यापति ने अवहट्ट और देसिल वअना (देशी वचन) कहा हो। प्राकृत के विकसित रूप को ही वस्तुतः अपभ्रंश कहा गया है। वैसे पातंजलि (१५० ई.पू.) ने महाभाष्य में सर्वप्रथम अपभ्रंश शब्द का प्रयोग किया पर वह प्रयोग अपाणिनीय शब्दों के लिए हुआ है। भामह और दण्डी (७ वीं शती) तक आते-आते वह आभीर किंवा अशिष्ट समाज की बोली के रूप में स्वीकार की जाने लगी। उद्योतन (८वीं शती) और स्वयंभू के काल तक अपभ्रंश ने एक काव्य शैली और भाषा के रूप में अपना स्थान बना लिया।
SR No.022771
Book TitleHindi Jain Sahityame Rahasya Bhavna
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPushplata Jain
PublisherSanmati Prachya Shodh Samsthan
Publication Year2008
Total Pages516
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size32 MB
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