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________________ 426 हिन्दी जैन साहित्य में रहस्यभावना ही भेदविज्ञान कहा है और वही मोक्ष का कारण माना गया है। कबीर और जैन, दोनों संसार को दुःखमय, क्षणिक और अनित्य मानते हैं। नरभव दुर्लभता को भी दोनों ने स्वीकार किया है। दोनों ने ही दुविधा भाव को अन्तकर मुक्तावस्था प्राप्त करने की बात कही है। कबीर की जीवन्मुक्त और विदेह अवस्था जैनों की केवली और सिद्ध अवस्था कही जा सकती है। स्वानुभूति को जैनों के समान निर्गुणी सन्तों ने भी महत्त्व दिया है। कबीर ने ब्रह्म को ही पारमार्थिक सत् माना है और कहा है कि ब्रह्म स्वयं ज्ञान रूप है, सर्वत्र व्यापक है और प्रकाशित है -' अविगत अपरपार ब्रह्म, ग्यान रूप सब ठाम। जैनों का आत्मा भी चेतन गुणरूप है और ज्ञान-दर्शन शक्ति से समन्वित है। इसी ज्ञान शक्ति से मिथ्याज्ञान का विनाश होता है। कबर की आतमदृष्टि' जैनों का भेद विज्ञान अथवा आत्मज्ञान है। बनारसीदास, द्यानतराय आदि हिन्दी जैन कवियों ने सहजभाव को भी कबीर के समान अपने ढंग से लिया है। अष्टांग योगों का भी लगभग समान वर्णन हुआ है। शुष्क हठयोग को जैनों ने अवश्य स्वीकार नहीं किया है। कबीर के समान जैन कवि भी समरसी हुए हैं और प्रेम के खूब प्याले पिये हैं। तभी तो उनका दुविधा भाव जा सका। कबीर ने लिखा पाणी ही तें हिम भया, हिम है गया बिलाइ। जो कुछ था सोई भया, अब कछु कहया न जाई।। बनारसीदास ने भी ऐसा ही कहा है - पिय मोरे घट में पिय माहि, जलतरंग ज्यौं दुविधा नाहिं।।०२
SR No.022771
Book TitleHindi Jain Sahityame Rahasya Bhavna
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPushplata Jain
PublisherSanmati Prachya Shodh Samsthan
Publication Year2008
Total Pages516
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size32 MB
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