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________________ रहस्य भावनात्मक प्रवृत्तियों का तुलनात्मक अध्ययन 425 ठगौरी, ठगिनी, छलनी, नागनि आदि कहा गया है। कबीर ने व्यावहारिक दृष्टि से माया के तीन भेद माने हैं - मोटी माया, झीनी माया और विद्यारूपिणी। मोटी माया को कर्म कहा गया है। इसके अन्तर्गत वन, सम्पदा, कनक कामिनी आदि आते हैं। पूजा-पाठ आदि बाह्याडम्बर मे उलझना भी ऐसे कर्म हैं जिनसे व्यक्ति परमपद की प्राप्ति नहीं कर पाता। झीनी माया के अन्तर्गत आशा, तृष्णा, मान आदि मनोविकार आते हैं। विद्यारूपिणी माया के माध्यम से सन्त साध्य तक पहुंचने का प्रयत्न करते हैं। यह आत्मा का व्यावहारिक स्वरूप है। जैनों का मिथ्यात्व अथवा कर्म कबीर की माया के सिद्धान्त के समानार्थक है। कबीर के समान जैन कवियों ने भी माया की ठगिनी कहा है। कबीर की मोटी माया जैनों का कर्म है जिसके कारण जीव में मोहासक्ति बनी रहती है । जैसा हम देख चुके हैं, जैन कवि भी कबीर के समान बाह्याडम्बर के पक्ष में बिलकुल नहीं हैं। वे तो आत्मा के विशुद्ध स्वरूप को प्राप्त करने के लिए विशुद्ध साधन को ही अपनाने की बात करते हैं। विद्यारूपिणी माया का सम्बन्ध मुनियों के चारित्र से जोड़ा जा सकता है। कबीर और जैनों की माया में मूलभूत अन्तर यही है कि कबीर माया को ब्रह्म की लीला शक्ति मानते हैं पर जैन उसे एक मनोविकारजन्य कर्म का भेद स्वीकार करते हैं। माया अथवा मनोविकारों से मुक्त होना ही मुक्ति को प्राप्त करना है। उसके बिना संसार-सागर से पार नहीं हुआ जा सकता।९८ इसलिए 'आपा पर सब एक समान, तब हम पाया पद निरवाण' कहकर कबीर ने मुक्ति-मार्ग को निर्दिष्ट किया है। जैन कवियों ने इसे
SR No.022771
Book TitleHindi Jain Sahityame Rahasya Bhavna
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPushplata Jain
PublisherSanmati Prachya Shodh Samsthan
Publication Year2008
Total Pages516
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size32 MB
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