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________________ 424 हिन्दी जैन साहित्य में रहस्यभावना पृथक् तत्त्व नहीं इसलिए मिलन या ब्रह्मसाक्षात्कार की समान तीव्रता होते हुए भी दिशा में अलग-अलग रही। ६. निर्गुण रहस्यभावना और जैन रहस्यभावना निर्गुण का तात्पर्य है-पूर्णवीतराग अवस्था। कबीर आदि निर्गुणी सन्तों का ब्रह्म इसी प्रकार का निर्गुण और निराकार माना जाता है। कबीर ने निर्गुण के साथ ही सगुण ब्रह्म का भी वर्णन किया है। इसका अर्थ यह है कि कबीर का ब्रह्म निराकार और साकार, द्वैत और अद्वैत तथा भावरूप और अभावरूप है। जैसे जैनों के अनेकान्त में दो विरोधी पहलू अपेक्षाकृत दृष्टि से निभ सकते हैं, वैसे कबीर के ब्रह्म में भी हैं। कबीर पर जाने-अनजाने एक ऐसी परम्परा का जबरदस्त प्रभाव पड़ा था, जो अपने में पूर्ण थी और स्पष्टतः कबीरदास की सत्यान्वेषक बुद्धि ने उसे स्वीकार किया। उन्होंने अनुभूति के माध्यम से उसे पहिचाना। जैन परम्परा में भी आत्मा के दो रूप मिलते हैं - निकल और सकल। इसे ही हम क्रमशः निर्गुण और सगुण कह सकते हैं। रामसिंह ने निर्गुण को ही निःसंग कहा है। उसे ही निरंजन भी कहा जाता है। दूसरे शब्दों में हम कह सकते हैं कि पंचपरमेष्ठियों में अर्हन्त और सिद्ध क्रमशः सगुण और निर्गुण ब्रह्म हैं जिसे कबीर ने स्वीकार किया है। बनारसीदास ने इसी निर्गुण को शुद्ध, बुद्ध, अविनाशी और शिव संज्ञाओं से अभिहित किया है।३९५ कबीर की माया, भ्रम, मिथ्याज्ञान, क्रोध, लोभ, मोह, वासना, आसक्ति आदि मनोविकार मन के परिधान हैं जिन्होंने त्रिलोक को अपने वश में किया है। यह माया ब्रह्म की लीला की शक्ति है। इसी के कारण मुनष्य दिग्भ्रमित होता है। इसलिए इसे
SR No.022771
Book TitleHindi Jain Sahityame Rahasya Bhavna
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPushplata Jain
PublisherSanmati Prachya Shodh Samsthan
Publication Year2008
Total Pages516
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size32 MB
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