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हिन्दी जैन साहित्य में रहस्यभावना जैन योगसाधना के समान सूफी योग साधना भी है। अष्टांगयोग और यम-नियम लगभग समान हैं। जायसी का योग प्रेम से सम्बलित है पर जैन योग में वह नहीं। जायसी ने राजयोग माना है, हठयोग नहीं। जैन भी हठयोग को मुक्ति का साधन नहीं मानते। सूफियों में जीवनमुक्ति और जीवनोत्तर मुक्ति दोनों मुक्तियों का वर्णन मिलता है । जीवन मुक्ति दिलाने वाली वह भावना है जो फना और बका को एक कर देती है। फना में जीव की सारी सांसारिक आकांक्षायें, मोह, मिथ्यात्व आदि नष्ट हो जाते हैं। जैनधर्म में इसी अवस्था को वीतराग अवस्था कहा गया है। इसी को अद्वैतावस्था भी कह सकते हैं जहां आत्मा अपनी परमोच्च अवस्था में लीन हो जाती है। यही निर्वाण है जो सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र के परिपालन से प्राप्त होता है। जायसी ने भी जैनों के समान तोता रूप सद्गुरु को महत्त्व दिया है। यहीं पद्मावती रूपी साध्य का दर्शन करता है।
जायसी ने विरह को प्रेम से भी अधिक महत्त्व दिया है। इसीलिए जायसी का विरह वर्णन साहित्य और दर्शन के क्षेत्र में एक अनुपम योगदान है। उत्तरकालीन जैन भक्त साधक भी इस विरह की ज्वाला में जले हैं। बनारसीदास और आनन्दघन को इस दृष्टि से नहीं भुलाया जा सकता। जायसी के समान ही हिन्दी जैन कवियों ने भी आध्यात्मिक विवाह और मिलन रचाये हैं। जायसी ने परमात्मा को पति रूप माना है पर वह है स्त्री-पद्मावती। यद्यपि जैन साधकोंभक्तों ने परमात्मा को पति रूप में स्वीकार किया है पर उसका रूप स्त्री नहीं, पुरुष रहा है। बनारसीदास का नाम दाम्पत्यमूलक जैन साधकों में अग्रणीय है।