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________________ रहस्य भावनात्मक प्रवृत्तियों का तुलनात्मक अध्ययन 421 माया के सब आवरण नष्ट हो गये, आत्मा और जीवगत भेद नष्ट हो गया। जीव जब अपने आत्मभाव को पहिचान लेता है तो फिर यह अनुभव हो जाता है कि तन, मन जीवन सब कुछ वहां एक आत्मदेव है। लोग अहंकार के वशीभूत होकर द्वैत भाव में फंसे रहते हैं, किन्तु ज्यों ही अहंकार नष्ट हो जाता है। अद्वैत स्थिति आ जाती है। माया की अपरिमित शक्ति है। उसने रतनसेन जैसे सिद्ध साधक को पदच्युत कर दिया। अलाउद्दीन रूपी माया सदैव स्त्रियों में आसक्त रहती है। छल-कपट भी उसकी अन्यतम विशेषता है। दशवें द्वार में स्थित आत्मतत्त्व को अन्तर्मुखी दृष्टि से ही देखा जा सकता है पर माया इस आत्मदर्शन में बाधा डालती है । माया को इसीलिए ठग, बटमार आदि जैसी उपमायें भी दी गई हैं। संसार मिथ्या-माया का प्रतीक है। यह सब असार है। जैन दर्शन में माया-मोह अथवा कर्म को साध्य प्राप्ति में सर्वाधिक बाधक कारण माना गया है। इसमें आसक्त व्यक्ति ऐन्द्रित सुख को ही यथार्थ सुख मानता है। यहां माया शैतान जैसे पृथक् दो तत्त्व नहीं माने गये। सारा संसार माया और मिथ्यात्व जन्य ही है। मिथ्यात्व के कारण ही इस क्षणिक संसार को जीव अपना मानता है। जायसी ने जिसे अन्तरपट अथवा अन्तरदर्शन कहा है, जैनधर्म उसे आत्मज्ञान अथवा भेदविज्ञान कहता है। जब तक भेदविज्ञान नहीं होता तब तक मिथ्यात्व, माया, कर्म अथवा अहंकार आदि दूर नहीं होते। जायसी के समान यहां जीव और आत्मा दो पृथक् तत्त्व नहीं है। जीव ही आत्मा है । उसे माया रूपी ठगिनी जब ठग लेती है तो वह संसार में जन्म-मरण के चक्कर लगाती रहती है। वासना को यहां भी संसार का प्रमुख कारण माना गया है। मिथ्यात्व को दुःखदायी और आत्मज्ञान को मोक्ष का कारण कहा गया है।
SR No.022771
Book TitleHindi Jain Sahityame Rahasya Bhavna
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPushplata Jain
PublisherSanmati Prachya Shodh Samsthan
Publication Year2008
Total Pages516
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size32 MB
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