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हिन्दी जैन साहित्य में रहस्यभावना परमार्थिक और व्यावहारिक। पारमार्थिक दृष्टि में आत्मा शाश्वत है और व्यावहारिक दृष्टि से वह संसार में भटकता रहता है। सूफी दर्शन में रूह को विवेक सम्पन्न माना गया है। जैनों ने आत्मा का गुण अनन्तज्ञान-दर्शन रूप माना है। सूफी दर्शन में रूह (उच्चतर) के तीन भेद माने गये हैं - कल्व (दिल), रूह (जान), सिरै (अन्तःकरण)। जैनों ने भी आत्मा के तीन भेद माने हैं - बहिरात्मा, अन्तरात्मा और परमात्मा । सूफियों के आत्मा का सिरै रूप जैनों का अन्तरात्मा कहा जा सकता है। यहीं से परमात्मा पद की प्राप्ति का मार्ग प्रशस्त होता है। संसार की सृष्टि का हर कोना सूफी दर्शन के अनुसार ब्रह्म का ही अंश है। पर जैन दर्शन के अनुसार सृष्टि की समरचना में परमात्मा का कोई हाथ नहीं रहता। जैन दर्शन का आत्मा ही विशुद्ध होकर परमात्मा बनता है अर्थात् उसकी आत्मा में ही परमात्मा का वास रहता है पर अज्ञान के आवरण के कारण वह प्रकट नहीं हो पाता। जायसी ने भी गुरु रूपी परमात्मा को अपने हृदय में पाया है। जायसी का ब्रह्म सारे संसार में व्याप्त है और उसी के रूप से सारा संसार ज्योतिर्मान है।८२ . जैनों का आत्मा भी सर्वव्यापक है और उसके विशुद्ध स्वरूप में संसार का हर पदार्थ दर्पणवत् प्रतिभाषित होता है। १८३
जायसी ने ब्रह्म के साथ अद्वैतावस्था पाने में माया (अलाउद्दीन), और शैतान (राधवदूत) को बाधक तत्त्व माने हैं। वासनात्मक आसिक्त ही माया है। शैतान प्रेम-साधना की परीक्षा लेने वाला तत्त्व है। पद्मावत में नागमती को दुनियां अंधा, अलाउद्दीन को माया एवं राघव चेतन को शैतान के रूप में इसीलिए चित्रित किया गया है। जायसी ने लिखा है - मैनें जब तक आत्मा स्वरूपी गुरु को नहीं पहिचाना, तब तक करोड़ों पर्दे बीच में थे, किन्तु ज्ञानोदय हो जाने पर