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________________ 419 रहस्य भावनात्मक प्रवृत्तियों का तुलनात्मक अध्ययन कोउ कह सत्य, झूठ कह कोऊ, जुगल प्रबल कोउ माने। तुलसिदास परिहरे तीत भ्रम, सौं आपन पहिचानै ।। " तुलसी जैसे सगुणोपासक भक्त भी अपने आराध्य को किसी निर्गुणोपासक रहस्यवादी साधक से कम रहस्यमय नहीं बतलाते । रामचरितमानस में उन्होंने लिखा है 1 " आदि अंत कोउ जासु न पावा । मति अनुमानि निगम जस गावा । बिनु पद चलइ सुनइ बिनु काना । कर बिनु करम करइ विधि नाना । । " इस प्रकार सगुणोपासक कवियों में मीरा को छोड़कर प्रायः अन्य कवियों में रहस्यात्मक तत्त्वों की उतनी गहरी अनुभूति नहीं दिखाई देती । इसका कारण स्पष्ट है कि दाम्पत्यभाव में प्रेम की जो प्रकर्षता देखी जा सकती है वह दास्यभाव अथवा सख्य भाव में सम्भव कहां। इसके बावजूद उनमें किसी न किसी तरह साध्य की प्राप्ति में उनकी भक्ति सक्षम हुई है और उन्होंने परम ब्रह्म की अनिर्वचनीयता का अनुभव किया है। ५. सूफी और जैन रहस्यभावना मध्यकालीन सूफी हिन्दी जैन साहित्य के अध्ययन से ऐसा प्रतीत होता है कि सूफी कवियों ने भारतीय साहित्य और दर्शन से जो कुछ ग्रहण किया है उसमें जैन दर्शन की भी पर्याप्त मात्रा रही है। जायसी ब्रह्म को सर्वव्यापक, शाश्वत, अलख और अरूपी मानते हैं। जैनदर्शन में भी आत्मा को अरस, अरूपी और चेतना गुण से युक्त मानते हैं। सूफियों ने मूलतः आत्मा के दो भेद किये हैं- नफस और रूह । नफस संसार में भटकनेवाला आत्मा है और रूह विवेक सम्पन्न है। जैन दर्शन में भी आत्मा के दो स्वरूपों का चित्रण किया गया है - ३७७ ३७८ ३७९
SR No.022771
Book TitleHindi Jain Sahityame Rahasya Bhavna
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPushplata Jain
PublisherSanmati Prachya Shodh Samsthan
Publication Year2008
Total Pages516
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size32 MB
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