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हिन्दी जैन साहित्य में रहस्यभावना
धन की धुनि सुनि मोर मगन भया, यूं आणन्द आया जी । मगन भई मिली प्रभु अपणासूं, भो का दरद मिटाया जी ।। चन्द को देखि कमोदणि फूलै हरिख भया मेरी काया जी । रग-रग सीतल भई मेरी सजनी, हरि मेरे महल सिधाया जी । सब भगतन का कारज कीन्हा, सोई प्रभु में पाया जी । मीरा विरहणि सीतल होई, दुख दुन्द नसाया जी ।
मीरा की तन्मयता और एकीकरण के दर्शन 'लगी मोहि राम खुमारी हो' में मिलते हैं जहां वह 'सदा लीन आनन्द में रहकर ब्रह्मरस का पान करती है। उनका ज्ञान और अज्ञान, आनन्द और विषाद 'एक' में ही लीन हो जाता है। इसी के लिए तो उन्होंने पचरंगी चोला पहिनकर झिरमिट में आंख मिचौनी खेली है । और मनमोहन से सोने में सुहाग-सी प्रीति लगायी है। बड़े भाग से मीरा के प्रभु गिरिधर नागर मीरा पर रीझे हैं।
इसी माधुर्य भाव में मीरा की चुनरिया प्रेमरस की बूंदों से भींगती रही और आरती सजाकर सुहागिन प्रिय को खोजके निकल पड़ी। " उसे वर्षात् और बिजली भी नहीं रोक सकी। प्रिय को खोने में उसकी नींद भी हराम हो गई, अंग-अंग व्याकुल हो गये पर प्रिय की वाणी की स्मृति से 'अन्तर - वेदन विरह की वह पीड़ा न जानी' गई। जैसे चातक धन के बिना और मछली पानी के बिना व्याकुल रहती है वैसे ही मीरा 'व्याकुल विरहणी सुध बुध विसरानी' बन गई। उसकी पिया सूनी सेज भयावन लगने लगी, विरह से जलने लगी। यह निर्गुण की सेज ऊंची अटारी पर लगी है, उसमें लाल किवाड़ लगे हैं, पंचरंगी झालर लगी है, माँग में सिन्दूर भरकर सुमिरण का थाल हाथ में लेकर प्रिया प्रियतम के मिलन की बाट जोह रही है -