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________________ 412 हिन्दी जैन साहित्य में रहस्यभावना अद्वैत स्थिति में प्रिया और प्रियतम के बीच यह भावना प्रस्थापित हो जाती है - हरि मरि हैं तो हमहु मरि हैं। हरिन मरें तो हम काहै को मरें।। इस प्रकार निर्गुणिया सन्त आध्यात्मिकता, अद्वैत और पवित्रता की सीमा में घिरे रहते हैं। उनकी साधना में विचार और प्रेम का सुन्दर समन्वय हुआ है तथा ब्रह्मजिज्ञासा से वह अनुप्राणित है । अण्डरहिल के अनुसार रहस्यवादियों का निर्गुण उपास्य प्रेम करने योग्य, प्राप्त करने योग्य सजीव और वैयक्तिक होता है। ये विशेषतायें सन्तों के रहस्यवादी प्रियतम में संनिविष्ट मिलती हैं। प्रेम, गुरु, विरह, रामरस ये रहस्यवाद के प्रमुख तत्त्व हैं। अण्डरहिल के अनुसार प्रेम मूलक रहस्यवाद की पांच अवस्थायें होती हैं - जागरण, परिष्करण, अंशानुभूति, विघ्न और मिलन। सन्तों के रहस्यवाद में ये सभी अवस्थायें उपलब्ध होती हैं। उनकी रहस्यभावना की प्रमुख विशेषतायें हैं - सर्वव्यापकता, सम्पूर्ण सत्य की अनुभूति प्रवृत्यात्मकता, कथनीकरनी में एकता, कर्म-भक्ति-प्रेम-ज्ञान में समन्वयवादिता, अद्वैतानुभूति और जन्मान्तरवादिता।६५ ४. सगुण भक्तों की रहस्यभावना सगुण साधकों में मीरा, सूर और तुलसी का नाम विशेष उल्लेखनीय है। मीरा का प्रेम नारी सुलभ समर्पण की कोमल भावना गर्भित 'माधुर्य भाव' का है जिसमें अपने इष्टदेव की प्रियतम के रूप में उपासना की जाती है। उनका कोई सम्प्रदाय विशेष नहीं, वे तो मात्र भक्ति की साकार भावना की प्रतीक हैं जिसमें चिरन्तन प्रियतम के पाने के लिए मधुर प्रणय का मार्मिक स्पन्दन हुआ है। ‘म्हारो तो गिरधर गौतम और दूसरा न कोई' अथवा 'गिरधर से नवल ठाकुर मीरां
SR No.022771
Book TitleHindi Jain Sahityame Rahasya Bhavna
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPushplata Jain
PublisherSanmati Prachya Shodh Samsthan
Publication Year2008
Total Pages516
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size32 MB
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