________________
हिन्दी जैन साहित्य में रहस्यभावना
३५६
कामिनी को कन्त से होता है। प्रेम से व्यथित होकर प्रेमी अन्दर और बाहर सर्वत्र प्रिय का ही दर्शन करता है -
410
कबीर रेख सिन्दूर की, काजल दिया न जाइ। नैनूं रमइया रमि रहया, दूजा कहां समाई ।। नैना अन्तरि भाव तूं ज्यूं हीं नैन झंपेउ । नां हौं देखौं और कूं, ना तुझ देखन देउ ।।
३५७
प्रियतम के ध्यान से कबीर की द्विविधा का भेद खुल जाता है और मन मैल धुल जाता है - दुविधा के भेद खोल बहुरिया मनकै धोवाइ।' उनकी चूनरी को भी साहब ने रंग दिया। उसमें पहले स्याही का रंग लगा था। उसे छुटाकर मजीठा का रंग लगा दिया जो धोने से छूटता नहीं बल्कि स्वच्छ-सा दिखता है। उस चूनरी को पहनकर कबीर की प्रिया समरस हो जाती है
-
साहेब है रंगरेज चुनरी मेरी रंग डारी । स्याही रंग छुड़ायके रे दियो मजीठा रंग । धोय से छूटे नहीं रे दिन-दिन होत सुरंग । भाव के कुंड नेह के जल में पगेम रंग देइ बोर । दुख देह मैल लुटाय दे रे खूब रंगी झकझोर ।। साहिब ने चुनरी रंगी रे पीतम चतुर सुजान । सब कुछ उन पर बार दूं, रे तल मन धन और प्रान ।। कहें कबीर रंगरेज प्यारे मुझपर हुए दयाल । सीतल चुनरी ओढ के रे भइ हैं मगन निहाल ।। प्रियतम से प्रेम स्थापित करने के लिए संसार से वैराग्य लेने की
३५८