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हिन्दी जैन साहित्य में रहस्यभावना
सन्तों ने वात्सल्य भाव से भगवान को कभी माता रूप में माना तो कभी पिता रूप में। परन्तु माधुर्य भाव के उदाहरण सर्वोपरि हैं। उन्होंने स्वयं को प्रियतम और भगवान् को प्रियतम की कल्पना कर भक्ति के सरस प्रवाह में मनचाहा अवगाहन किया है - हरि मेरो पीउ मैं हरि की बहुरिया। दादू, सहजोबाई, चरनदास आदि सन्तों ने भी इसी कल्पना का सहारा लिया है। उनके प्रियतम ने प्रिया के लिए एक विचित्र चूनरी संवार दी है जिसे विरला ही पा सकता है। वह आठ प्रहर रूपी आठ हाथों की बनी है और पंचतत्त्व रूपी रंगों से रंगी है। सूर्यचन्द्र उसके आंचल में लगे हैं जिनसे सारा संसार प्रकाशित होता है। इस चूनरी की विशेषता यह है कि इसे किसी ने ताने-बाने पर नहीं बुना। यह तो उसे प्रियतम ने भेंट की है -
चुनरिया हमरी पिया ने संवारी, कोई पहिरै पिया की प्यारी। आठ हाथ की बनी चुनरिया, पंचरंग पटिया पारी।। चांद सुरज जामैं आंचल लागे, जगमग जोति उजारी। बिनु ताने यह बनी चुनरिया, दास कबीर बलिहारी।।५१
कबीर के प्रियतम की छवि विश्वव्यापिनी है । स्वयं कबीर भी उसमें तन्मय होकर 'लाल' हो जाते हैं। उसके विरह से विरहिणी क्रौंच पक्षी के समान रात भर रोती रहती है वियोग से सन्तप्त होकर वह पथिकों से पूछती है - प्रियतम का एक शब्द भी सुनने कहां मिलेगा? उसकी व्यथा हिंचकारियों के माध्यम से फूट पड़ती है -
आइ न सकों तुझ पै, सकुँ न तुझ बुलाइ। जियरा यों ही लेहुगे, विरह तपाइ तपाइ।। अंघड़िया झाई पड़ी, पन्थ निहारि निहारि। जीभड़िया छाला पड्या, राम पुकारि पुकारि।। इन तन के दीवा कसैं, बाती मेल्यूं जीव । लोही सींचो तेल ज्यूं, कब मुख देखौं पीव।।३५३