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रहस्य भावनात्मक प्रवृत्तियों का तुलनात्मक अध्ययन 407 ३. निर्गुण भक्तों की रहस्य भावना
मध्यकालीन हिन्दी सन्तों ने भी सूफी सन्तों के समान अपनी रहस्यानुभूति को अभिव्यक्त किया है। उनकी रहस्यभावना को सूफी, वैदिक, जैन और बौद्ध रहस्यभावनाओं का संमिश्रित रूप कहा जा सकता है । माया आदि के आवरण से दूर प्रेम की प्रकर्षता यहां सर्वत्र देखी जा सकती है। माया के कारण ब्रह्ममिलन न होने पर विरह की वह दशा जाग्रत होती है जो साधक को परम सत्य की खोज में लगाये रखती है।
सन्तों का ब्रह्म (राम) निर्गुण और निराकार है - निर्गुण राम जयहुरे भाई। वह अनुपम और अरूपी है। उसके वियोग में कबीर की आत्मा तड़पती हुई इधर-उधर भटकती है। पर उसका प्रियतम तो निर्गुण है। 'अबला के पिऊ-पिउ' वाले आर्तस्वर से भी उस पर कोई प्रभाव नहीं पड़ता। पिया मिलन की आस लेकर आखिर वह कब तक खड़ी रहे - 'पिया मिलन की आस, रही कब ली खरी' । पिया के प्रेम रस में कबीर ने अपने आपको भुला दिया। एक म्यान में दो तलवारें भला कैसे रह सकती हैं ? उन्होंने प्रेम का प्याला खूब पिया। फलतः उनके रोम-रोम में वही प्रेम बस गया। कबीर ने गुरु-रस का भी पान किया है, छाछ भी नहीं बची। वह संसार-सागर से पार हो गया है। पके घड़े को कुम्हार के चाक पर पुनः चढ़ाने को क्या अवश्यकता?
पीया चाहे प्रेम रस राखा चाहे मान। एक म्यान में दो खड़ग देखा सुना न कान। कबिरा प्याला प्रेम का, अंतर लिया लगाय। रोम-रोम में रमि रहा और अमल क्या खाय। कबिरा हम गुरु रस पिया बाकी रही न छाक। पाका कलस कुम्हार का बहुरि न चढसि चाक।