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हिन्दी जैन साहित्य में रहस्यभावना
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पाते। रतनसेन दर्शन के लिए इतना तड़प उठता है कि सात पाताल खोजकर और सात स्वर्गो में दौड़कर पद्मावती को खोजने कि बात करता है।" साधक घनघोर तप और साधना करता है । तब कहीं प्रियतम के देश में पहुंच पाता है। जायसी ने उस देश का वर्णन किया है। जहां न दिन होता है न रात, न पवन है न पानी। उस देश में पहुंचकर प्रियतम से भेंट की आतुरता बढ़ जाती है। पर वह अपरिचित है और फिर इधर दुष्टों का घेरा है जिसे किसी तरह से साधक साध्य का साक्षात्कार करता है और उसके बाद आध्यात्मिक विवाह की अवस्था होती है जिसका महत्व रहस्यवाद में बहुत अधिक है। रतनसेन और पद्मावती का विवाह ऐसे ही विवाह का प्रतीक माना गया है। इस विवाह का वर्णन यद्यपि भौतिक जैसा लगता है पर वह वस्तुतः है आध्यात्मिक ही है। वर-वधु की गांठ इतनी दृढ़ता से जुड़ जाती है कि वह आगे के भावों में भी नहीं छूट पाती। मंगालाचार होते हैं मन्त्र - पाठ पढ़ा जाता है और चांद-सूर्य का मिलन होता है ।
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आध्यात्मिक विवाह के उपरान्त साधक साध्य के प्रति पूरी तरह से आत्मसमर्पण कर देता हैं दोनों तन्मय हो जाते हैं। साधकसाध्य का मिलन भी आध्यात्मिक मिलन है जिसे मानसरोवर खण्ड में चित्रित किया गया है। मिलन होते ही रतनसेन पद्मावती के चरण स्पर्श करता है। चरण स्पर्श करते ही वह ब्रह्म रूप हो जाती है। यही अवस्था रहस्यानुभूति की चरम अवस्था है। जायसी ने इसका वर्णन बड़ी सूक्ष्मता से किया है। रतनसेन अपने आप को पद्मावती के लिए सौंप देता है। उसका शरीर मात्र उसके साथ है। जीव पद्मावती में मिल गया। इसलिए दुःख-सुख जो भी होगा, वह शरीर को नहीं, जीव को होगा, रतनसेन के जीव को नहीं । पद्मावती ने रतनसेन को