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रहस्य भावनात्मक प्रवृत्तियों का तुलनात्मक अध्ययन
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किया। वह सारे शरीर को कांटा बना देता है । साधक साध्य की विरहाग्नि में जलता रहता है पर दूसरे को जलने नहीं देता। प्रेम की चिनगारी से आकाश और पृथ्वी, दोनों भयवीत हो जाते हैं । १२५
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पद्मावती के दिव्य सौन्दर्य का वर्णन भक्त कवि ने किया है। मान-सरोवर ने पद्मावती को पाकर कैसा हर्ष व्यक्त किया यह पद्मावत में देखा जा सकता है। उसके दिव्य रूप को जायसी ने 'देवता हाथ-हाथ पगु लेही । जहं पगु धरै सीस तहं दही' के रूप में चित्रित किया है। उनका परमात्मा प्रेम भी अनुपम है। आकाश जैसा असीम है, ध्रुवनक्षेत्र से भी ऊंचा है। उसका दर्शन वहीं कर सकता है जो शिर के बल पर वहां तक पहुंचना चाहता है । परमात्मा की यह प्राप्ति सदाचार के पालन, अहं के विनाश, हृदय की शुद्धता एवं स्वयंकृत पापों का प्रतिक्रमण (तोबा) करने से होती है।'
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इस आध्यात्मिक विरह से प्रताडित होकर रतनसेन पद्मावती से मिलन करने के लिए प्रयत्न करता है। उसकी साधना द्विमुखी होती है - अन्तर्मुखी और बहिर्मुखी साधना में साधक अपने हृदयस्थ प्रियतम की खोज करता है और बहिर्मुखी साधना में वह उसे सारे विश्व में खोजता है। अन्तर्मुखी रहस्यवाद शुद्धभावमूलक और योगमूलक दोनों प्रकार का होता है। बहिर्मुखी रहस्यवाद में प्रकृतिमूलक, अभिव्यक्तिमूलक आदि भेद आते हैं। इस प्रकार जायसी का भावमूलक रहस्यवाद अन्तर्मुखी और बहिर्मुखी उभय प्रकार का है।
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जायसी अन्तर्मुखी प्रक्रिया के विशेष धनी हैं। उन्होंने सिंहल को हृदय का प्रतीक बनाकर उसमें परमात्मा का निवास बताया है । माया आदि जैसे तत्त्वों के कारण प्रियतम के उसे दर्शन ही नहीं हो
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