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________________ 400 हिन्दी जैन साहित्य में रहस्यभावना साधक इन चारों अवस्थाओं को पार करने में परमात्मा के गुणों का चिन्तन (जिक्र) करता है, राग, अहंकार आदि मानसिक वृत्तियों को दूर करता है (फिक्र), अपने धर्म ग्रंथ (कुरान-शरीफ) का अभ्यास (तिलवत) करता है और तदनुसार नामस्मरण, व्रत, उपवास दानादिक क्रियायें करता है। सूफी सन्तों ने आध्यात्मिक सत्ता को प्रियतम के रूप में देखा है और उसके दर्शन की तडफन में अपने को डुबोया है। इसी में वे समरस हुए हैं। 'सूफियों का प्रेम ‘प्रच्छन्न' के प्रति है। सूफी अपनी प्रेम व्यंजना साधरण नायक-नायिका के रूप में करते हैं। प्रसंग सामान्य प्रेम का ही रहता है किन्तु उसका संकेत ‘परम प्रेम' का होता है। बीच में आने वाले रहस्यात्मक स्थल इस सारे संसार में उसी की स्थिति को सूचित करते हैं साथ ही सारी सृष्टि को उस एक से मिलने के लिए चित्रित करते हैं। लौकिक एवं अलौकिक प्रेम दोनों साथ-साथ चलते हैं। प्रस्तुत में अप्रस्तुत की योजना होती है। वैष्णव भक्तों की भांति इनकी प्रेम व्यंजना के पात्र अलौकिक नहीं होते। लौकिक पात्रों के मध्य लौकिक प्रेम की व्यंजना करते हुए भी अलौकिक की स्थापना करने का दुरूह प्रयास इन सूफी प्रबन्ध काव्यों में सफल हुआ है।३१९ प्रेम के विविध रूप मिलते हैं। एक प्रेम तो वह है जिसका प्रस्फुटन विवाह के बाद होता है। दूसरा प्रेम वह है जिसमें प्रेमियों का आधार एवं आदर्श दोनों ही विरह हैं। तीसरे प्रेम में नारी की अपेक्षा नर में विरहाकुलता दिखाई देती है और चौथे प्रेम में प्रेम का स्फुरण चित्रदर्शन, साक्षात् दर्शन आदि से होता है। प्रेम के इस अन्तिम स्वरूप, जिसका आरम्भ गुण श्रवण, चित्रदर्शन, साक्षात् दर्शन आदि से होता है, इसका परिचय सूफी प्रेमाख्यानों में मिलता है। लगभग
SR No.022771
Book TitleHindi Jain Sahityame Rahasya Bhavna
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPushplata Jain
PublisherSanmati Prachya Shodh Samsthan
Publication Year2008
Total Pages516
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size32 MB
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