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________________ रहस्य भावनात्मक प्रवृत्तियों का तुलनात्मक अध्ययन 391 कबीर ने भी योग साधना की है। उन्होंने “न मैं जोग चित्त लाया, बिन बैराग न छूटसि काया' कहकर योग का मूल्यांकन किया है। कबीर ने हठयोगी साधना भी की। उन्होंने षट्कर्म आसन, मुद्रा, प्राणायाम और कुण्डलिनी उत्थापन की भी क्रियायें की। हठयोगी क्रियाओं से मन उचट जाने पर कबीर ने मन को केन्द्रित करने के लिए लययोग की साधना प्रारम्भ की जिसे कबीर पंथ में 'शब्द-सुरतियोग' कहा जाता है। शब्द को नित्य और व्यापक माना गया है। इसलिए शब्द-ब्रह्म की उपासना की गई है - "अनहद शबद उठै झनकार, तहं प्रभु बैठे समरथ सार।२६ इसकी सिद्धि के लिए ज्ञान के महत्त्व को भी स्पष्ट किया गया है। कबीर ने ध्यान के लिए अजपा जाप और नामजप को भी स्वीकार किया है। उन्होंने बहिर्मुखी वृत्तियों को अन्तर्मुखी कर उलटी चाल से ब्रह्म को प्राप्त करने का प्रयत्न किया है - उलटी चाल मिले पार ब्रह्म कौं, सौ सतगुरु हमारा। इसी माध्यम से उन्होंने सहज साधना की है और उसे कबीर ने तलवार की धार पर चलने के समान कहा है । इसमें षट्चक्रों मुद्राओं आदि की आवश्यकता नहीं होती। वह सहज भाव के साथ की जाती है। राजयोग, उन्मनि अथवा सहजावस्था समानार्थक है। सहजावस्था वह स्थिति है जहां साधक को ब्रह्मात्मैक्य प्राप्त हो जाता है। कबीर ने यमनियमों की भी चर्चा की है। उनमें बाह्याडम्बरों का तीव्र विरोध किया गया है और मन को माया से विमुक्त रखने का निर्देश दिया गया है। उन्होंने सहज समाधि को ही सर्वोपरि स्वीकार किया है -२४ सन्तो सहज समाधि भली। सांई तै मिलन भयौ जा दिन त, सुरतन अंत चली।। आंख न मूंदूं कान न डूंधूं, काया कष्ट न धारूं।। खुलै नैन मैं हंस हंस देखू, सुन्दर रूप निहारूं।।
SR No.022771
Book TitleHindi Jain Sahityame Rahasya Bhavna
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPushplata Jain
PublisherSanmati Prachya Shodh Samsthan
Publication Year2008
Total Pages516
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size32 MB
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