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हिन्दी जैन साहित्य में रहस्यभावना कहूं सुनाम सुनुं सौ सुमरन, जो कुछ करूं सौ पूजा। गिरह उद्यान एक सम देखू, और मिटाउं, दूजा।। जहं-जहं जाऊंसोइ परिकरमा, जो कुछ करूं सो सेवा। जब सोऊ तब करूं दंडवत, पूंजू और न देवा।। कहै कबीर यहु उनमनि रहनी, सो परगट करिगाई। सुख दुःख के इक परे परम सुख, तेहि में रहा समाई।।
सहजावस्था ऐसी अवस्था है जहां न तो वर्षा है न सागर, न प्रलय, न धूप, न छाया, न उत्पत्ति और न जीवन और मृत्यु है, वहां न तो दुःख का अनुभव होता है और न सुख का। वहां शून्य को जागृति और समाधि की निद्रा नहीं है। न तो उसे तौला जा सकता है और न छोड़ा जा सकता है। न वह हल्की है, न भारी। उसमें ऊपर नीचे की कोई भावना नहीं है। वहां रात और दिवस की स्थिति भी नहीं है। वहां न जल है, न पवन और न ही अग्नि । वहा सत्गुरु का साम्राज्य है। वह जगह इन्द्रियातीत है। उसकी प्राप्ति गुरु की कृपा से ही हो सकती है -
सहज की आप कथा है जिरारी। तुलि नहीं बैठ जाइ न मुकाती हलकु लगै न माटी। अरध ऊरध दोऊ नाहीं राति दिनसु तह नाहीं। जलु नहीं पवन-पवकु फुनि नाहीं सतिगुरु तहा स साही। अगम अगोचर रहै निरन्तर गुर किरपा ते लहिये। कहु कबीर चलि जाऊ गुर अपने संत संगति मिलि रहिये।
सहज साधना की ओर वस्तुतः ध्यान सहजयान के आचार्यों ने दिया। सहजयान की स्थापना में बौद्ध धर्म का पाखण्डपूर्ण जीवन मूल