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रहस्य भावनात्मक प्रवृत्तियों का तुलनात्मक अध्ययन
४. सहज- योग साधना और समरसता
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योग साधना आध्यात्मिक रहस्य की उपलब्धि के लिए एक सापेक्ष अंग है। सिन्धु घाटी के उत्खनन में प्राप्त योगी की मूर्तियां उसकी प्राचीन परम्परा को प्रस्तुत करने के लिए पर्याप्त हैं। ऋग्वेद (१ १०.६; ) और यजुर्वेद ( १२.१८) में योग का विवरण मिलता है। योगसूत्र में योग के आठ अंग बताये गये हैं - यम, नियम, आसन, प्राणायाम, प्रत्याहार, ध्यान, धारणा और समाधि । जैन-बौद्ध धर्म में भी योग का विवेचन मिलता है। साधारणतः योग का तात्पर्य है - योगश्चित्तवृत्ति निरोधः अर्थात् मन-वचन काय को एकाग्र करना । उसका विशेष अर्थ है - पिंडस्थ आत्मा का परमात्मा में अन्तर्भाव ।' उपर्युक्त अष्टांग योग को व्यवहारतः चार अंगों में विभक्त किया गया है - मन्त्र योग, लययोग, हठयोग और राजयोग । *" बाद में सुरति योग और सहजयोग की भी स्थापना हुई ।
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मध्यकालीन हिन्दी जैन - जैनेतर काव्य में भी योगसाधना का चित्रण किया गया है। जायसी ने अष्टांग योग को स्वीकार किया है। यम-नियमों का पालन करना योग है। यम पांच हैं - अहिंसा, सत्य, असत्य, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह । जायसी को इन पर पूर्ण आस्था थी। 'निठुर कोई जिउ बधसि परावा, हत्या केर न तोहि उस आंवा तथा ‘राजै' कहा सत्य कह सुआ, बिनु सन जस सेंवर कर भूआ आदि जैसे उद्धरणों से यह स्पष्ट है। नियम के अन्तर्गत शौच, सन्तोष, तप स्वाध्याय और ईश्वर प्रणिधान को रखा गया है। जायसी ने इन नियमों को भी यथास्थान स्वीकार किया है। जीव तत्त्व को ब्रह्मतत्त्व में मिला देना अथवा आत्मा को परमात्मा से साक्षात्कार करा देना योग का मुख्य उद्देश्य है। इन दोनों तत्त्वों को साधकों और आचार्यों ने भिन्न-भिन्न
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