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हिन्दी जैन साहित्य में रहस्यभावना कि प्रकट में तो साधक सांसारिक कार्य करता रहे पर मन ही मन आराध्य का ध्यान करते रहना चाहिए - ‘परगट लोक चार कहु बाता, गुपुत लाउ मन जासो राता।"सुर के अनुसार महान् से महान् पापी भी हरि के नामस्मरण से भवसागर को पार कर लेता है - कौ को न तारयौ लीला हरि नाक लिये"। "हरि-गुण श्रवण से ही शाश्वत् सुख मिलता है, जो यह लीला सुने सुनावै सौ हरि भक्ति पाइ सुख पावै।" दरिया ने नाम बिना भावकर्म का नष्ट होना असंभव सा कहा है।५० तुलसी ने भी नाम स्मरण की श्रेष्ठता दिग्दर्शित की है। बनारसीदास ने जिन सहस्रनाम में और द्यानतराय ने द्यानत पद संग्रह में इसकी विशेषता का वर्णन किया है।
__ पादसेवन, वन्दन और अर्चन को भी इन कवियों ने अपने भावों में गूंथा है। कबीर ने सेवा को ही हरिभक्ति मानी है- जो सेवक सेवा करें, ता संगिरे मुरारि सूरसागर का तो प्रथम पद ही चरण कमलों की वन्दना से प्रारम्भ किया गया है। मीरा ने भी “भाई म्हारो गोविन्द गुन गास्या"२४ कहकर 'भज मन चरण कमल अविनाशी' लिखा है।५५ आनन्दघन प्रभु के चरणों में वैसे ही मन लगाना चाहते हैं जैसे गायों का मन सब जगह घूते हुए भी उनके बछडों में लगा रहता है। अन्य कवि रूपचंद, छत्रपति, बुधजन आदि ने अपने पदों में इन्हीं भावों को व्यक्त किया है।२५०
इस प्रकार प्रपत्त भावना मध्यकालीन हिन्दी जैन और जैनेतर काव्य में समान रूप से प्रवाहित होती रही है। उपालम्भ, पश्चात्ताप, लघुता समता और एकता जैसे तत्त्व भावभक्ति में यथावत् उपलब्ध होते हैं। इन कवियों के पदों को तुलनात्मक दृष्टि से देखने पर यह स्पष्ट हो जाता है कि वे एक दूसरे से किसी सीमा तक प्रभावित रहे हैं।