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रहस्य भावनात्मक प्रवृत्तियों का तुलनात्मक अध्ययन
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दीनदयालु हो और मैं संसारी दुखिया हूं। इसी प्रकार की दीनता सूरदास के विनय के पदों में भी विखरी दिखाई पड़ती है -
अब लौं कहो, कौन दर जाऊं ?
तुम जगपाल, चतुर चिन्तामनि, दीनबन्धु सुनि नाउं ।। २४३
दीनता के साथ सभी भक्तों ने अपने दोषों और पश्चात्तापों का भी वर्णन किया है। भगवान दयालु है वह अपने भक्तों को दोष देते हुए भी भव समुद्र से पार लगा देंगे। तुलसीदास ने विनय पत्रिका में 'माधव मो समान जग नाहीं। सब विधि हीन, मलीन, दीन अति, लीन विषय
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कोउ नाहीं ।" कहकर अपनी दीनता व्यक्त की है इसी प्रकार भैया भगवतीदास ने चेतन के दोषों को गिनाकर, उसे भगवान का भजन करने की बात कही है । '
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इस प्रकार मध्यकालीन हिन्दी जैन सन्तों में प्रपत्ति भावना के सभी अंग उपलब्ध होते हैं। इनके अतिरिक्त श्रवण, कीर्तन, चिंतवन, सेवन, वन्दन, ध्यान, लघुता, समता, एकता, दास्यभाव, सख्यभाव आदि नवधाभक्ति तत्त्व भी मिलते हैं। इन तत्त्वों की एक प्राचीन लम्बी परम्परा है। वेदों, स्मृतियों सूत्रों, आगमों और पिटकों में इनका पर्याप्त विवेचन किया गया है। मध्यकालीन हिन्दी जैन और जैनेतर काव्य उनसे निःसन्देह प्रभावित दिखाई देते हैं। इन तत्त्वों में नामस्मरण विशेष उल्लेखनीय है। संसार सागर से पार होने के लिए साधकों ने इसका विशेष आश्रय लिया है। सूफियों का मार्फत और वैष्णवों का आत्म निवेदन दोनों एक ही मार्ग पर चलते हैं । श्रवण-कीर्त्तन आदि प्रकार भी सूफियों से शरीयत, तरीकत, हकीकत और मार्फत आदि जैसे तत्त्वों में नामान्तरित हुए हैं। सूफियों, वैष्णवों और जैनों ने आत्मसमर्पण को समान स्तर पर स्वीकारा है, सूफी साधना में इसी को जिक्र और फिक्र संज्ञा से अभिहित किया गया है। जायसी का विचार है