________________
हिन्दी जैन साहित्य में रहस्यभावना
""
२३३
ठाकुर लाउ कहकर स्वयं को प्रभु के लिए समर्पित कर दिया है। मीरा भी “मैं तो थारी सरण परी रे रामा ज्यूं तारे त्यूं तारा । मीरा दासी “राम भरोसे जम का फंदा निवार' कहकर पूर्णतया भगवान के अधीन है उसे तारना हो वैसे तारो । जैन कवि भी स्वयं को भगवान के अधीन कर उनसे भाव विह्वल हो मुक्ति की कामना करते दृष्टिगोचर होते हैं। वख्तराम साह - ‘तुम विन नहि तारै कोइ । दीन जानि बाबा वख्ता कै, करो उचित है सोई " कहकर, द्यानतराय" अब हम नेमि जी की शरन। दास द्यानत दयानिधि प्रभु, क्यों तजेंगे मरन' और 'अब मोहे तार लेहु महावीर”””” कहकर और दौलतराम 'जाऊ' कहां तज शरन तिहारी" कहकर इसी भाव की अभिव्यंजना की है।
१२३७)
386
-
कार्पण्य - भक्ति के इस अंग में साधक अपनी दीनता व्यक्त करता है। कबीर ने 'जिहि घटि राम रहै भरपूरि, ताकी मैं चरनन की
१२३९.
धूरि तथा 'कबीरा कूता राम का मुतिया मेरा नाऊं' जेसे उद्धरणों में अपनी दीनता और विनय का प्रदर्शन किया है। तुलसी ने 'जाऊं कहां तजि चरन तुम्हारे । काको नाम पतित पावन ? केहि अति दीन पियारे?’२४० मीरा भी 'अब मैं सरण तिहारी मोहि राखो कृपानिधान' कहकर अपनी अकिंचनता व्यक्त करती है। जैन कवियों ने भी भक्ति के इस अंग को उसी रूप में स्वीकार किया है । जगतराम को प्रभु के बिना और दूसरा कोई सहायक नहीं दिखता और दूसरे तो स्वार्थी हैं पर प्रभु उन्हें परमार्थी लगते हैं -
प्रभु बिन कोन हमारी सहाई ।।
२४१
और सबै स्वारथ के साथी, तुम परमारथ भाई ।। याते चरन सरन आये है, मन परतीत उपाई ।। भूधरदास ने भी भगवान जिनेन्द्र को अरज सुनाई है कि तुम