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________________ रहस्य भावनात्मक प्रवृत्तियों का तुलनात्मक अध्ययन 385 समान द्यानतराय को भगवान में पूर्ण विश्वास है - अब हम नेमि जी की शरण और ठोर मन लगत है छांडि प्रभु के शरन।२७ 'गोप्तृत्व वरण'' का तात्पर्य है - एकान्त में भवसागर से पार होने के लिए भगवद्गुणों का चिंतन करना। कबीर ने 'निरमल राम गुण गावे, सो भगतां मेरे मन भावै' के माध्यम से इसका वर्णन किया है। तुलसी ने 'कृपा सोधौ कहां विसारी राम। जेहि करुना मुनि श्रवन दीन-दुःख धवत हो तहज धाम' लिखकर राम के गुणों का स्मरण किया है।२९ मीरा में शरण अब तिहारी जी मोहि राखो कृपानिधान कहकर प्रभु के गुणों का वर्णन किया है।२३० इसी प्रकार वख्तराम साह अपने प्रभु के अतिरिक्त इस जग में दूसरों को दानी नहीं समझते हैं। उसी की कृपा से उनके हृदय में अनन्त सुख उपजा है - तुम दरसन तैं देव सकल अध मिटि है मेरे ।। कृपा तिहारी तें करुणा निधि, उपज्यो सुख अछेव। अब लौ निहारे चरन कमल की करी न कवहूं सेव ।। अवहूं सरनै आयो सब छूट गयो अहमेव।। तुम से दानी और न जग में, जांचत हो तजि भेव। वख्तराम के हिये रहो तुम भक्ति करन की टेव।।११ "आत्मनिक्षेप'' का अर्थ है। भक्त स्वयं को भगवान के अधीन कर दे। कबीर ने 'जो पै पतिव्रता है नारी कैसे ही रहौसी पयिहि प्यारी।' तन मन जीवन सोपि सरीरा। ताटि सुहागिन कहै कबीरा' से आत्मनिक्षेप की शर्त मान ली। तुलसीदास ने भी मेरे रावरिये गति है रघुपति बलि जाउं। निलज नीच निरधन निरगुन कहं जग दूसरो न
SR No.022771
Book TitleHindi Jain Sahityame Rahasya Bhavna
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPushplata Jain
PublisherSanmati Prachya Shodh Samsthan
Publication Year2008
Total Pages516
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size32 MB
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