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________________ हिन्दी जैन साहित्य में रहस्यभावना १२१८. २१९ २२० 'प्रातिकूलस्य वर्जनम्' का तात्पर्य है भगवद् भक्ति में उपस्थित प्रतिकूल भावों का त्याग करना । 'हिरदै कपअ हरि नहिंसांची, कहा भयो जे अनहद नाच्यौ' जैसे उद्धरणों में कबीर ने माया, कपट क्रोध लोभ आदि दूषित भावों को त्यागने का संकेत किया है । " मीरा भी मेरे तो गिरधर गोपाल दूसरा न कोई 'कहकर भक्ति में विघ्न डालने वाले परिवार के लोगों को त्याग देती हैं." तुलसी ने भी ' जीके प्रिय न राम वैदेही । सो छांड़िये कोटि बैरी सम जद्यपि परम सनेही' कहकर प्रतिकूल स्थिति को छोड़ा है। वख्तराम साह ने 'इन कर्मो तै मेरा जीव डरता हो ।' कहकर कर्मों को दूर करने के लिए कहा है और दौलतराम ने छांड़ि दे या बुधि मोरी, वृथा तन से रति जोरी' मानकर शरीरादि से मोह नष्ट करने के लिए आवश्यक माना है ।' “रक्षिष्यतीति विश्वासः " का अर्थ है - भक्त को यह पूर्ण विश्वास है कि भगवान हमारी रक्षा करेंगे। कबीर को भगवान में दृढ़ विश्वास है - " अब मोही राम भरोसो तेरा, और कौन का करौ निहारा।"" तुलसी को भी पूरा विश्वास है - “भरोसो जाहि दूसरो सो करो। मोको तो राम को नाम को नाम कल्पतरु कलि कल्यान करो।' ,,२२२. 'सूर ने भी 'को को न तरयो हरि नाम लिये' कहकर विश्वास व्यक्त किया है। मीरा को विश्वास है कि हे प्रभु, मैं तो आपके शरण हूं, आप किसी न किसी तरह तारेंगे ही। एक अन्यत्र पद में मीरा विश्वास के साथ कहती है - हरि मोरे जीवन प्रान अधार और आसिरो नाहीं तुम बिन तीनूं लोक मंझार । २२३ २२४ 384 " २२५ नवलराम को भी विश्वास है कि वीतराग की शरण में रहने से सभी पाप दूर हो जायेंगे और मुक्ति प्राप्त कर लेंगे। " द्यानतराय को भी तीनों भवनों में जिनदेव समान अन्य कोई सामर्थ्यवान देव नहीं मिला । केवल जिनेन्द्र ही भव जीवनि को तारने में समर्थ हैं। कबीर तुलसी के
SR No.022771
Book TitleHindi Jain Sahityame Rahasya Bhavna
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPushplata Jain
PublisherSanmati Prachya Shodh Samsthan
Publication Year2008
Total Pages516
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size32 MB
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