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रहस्य भावनात्मक प्रवृत्तियों का तुलनात्मक अध्ययन अब लों नसानी, अब न नसैहों । राम कृपा भाव-निसा सिरानी, जागे फिर न डसै कों। पायेऊ नाम चारु चिन्तामनि, उरकर ते न ससैहों। स्याम रूप सुचि रुचिर कसौटी, चित्त कंपनहि कसैहों । परबस जानि हंस्यो इन इन्द्रिन बस है न हसैहों । मन मधुकर पन मैं तुलसी पद कमल वसैहों ।२४
इस प्रकार रूपचन्द भगवान् के शरण में जाकर यह कहते हुए दिखाई देते हैं - ‘अभी तक उन्होंने स्वयं को नहीं पहिचाना। मन वासना में लीन रहा, इन्द्रियां विषयों की ओर दौड़ती रहीं। पर अब तुम्हारी शरण मिलने से एक मार्ग मिल गया है जो भव दुःख को दूर कर देगा
प्रभु तेरे पद कमल निज न जानै ।। मन मधुकर रस रसि कुवसि, कुमयौ अब अनत न रति माने । अब लगि लीन रह्यो कुवासना, कुविसन कुसुम सुहानै। भीज्यो भगति वासना रस वस अवस वर सयाहि भुलाने। श्री निवास संताप निवारन निरूपम रूप अरूप बखाने। मुनि जन राजहंस जु सेवित, सुर नर सिर सरमाने।। भव दुख तपनि तपत जन पाए, अंग-अंग सहताने। रूपचन्द चित भयो अनन्दसु नाहि नै बनतु बखाने।।५
भैया भगवतीदास हो चेतन तो मति कौन हरी और कुमुदचन्द' चेतन चेतत किउ बावरे' कहकर यही भाव व्यक्त करते हैं। कबीर बाह्य क्रियाओं को व्यर्थ कहते हैं और तुलसीदास इन्द्रिय वासना की बात करते हैं पर भगवतीदास राग और लोभ के प्रभाव से आयी हुई मिथ्यामति को ही दूर करने का संकल्प लिए हुए बैठे हैं।२१६