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________________ 380 हिन्दी जैन साहित्य में रहस्यभावना आसा मारि आसन धरि घट में, अजपा जाप जगावै । आनन्दघन चेतनमय मूरति, नाथ निरंजन पावै ।।२०० निरंजन शब्द के इन प्रयोगों से यह स्पष्ट है कि जैन और जैनेतर कवियों ने इसे परमात्मा के अर्थ में प्रयुक्त किया है। सिद्ध सरहपाद और गोरखनाथ ने भी इस शब्द का प्रयोग किया है। निरंजन आत्मा की वह स्थति है जहाँ माया अथवा अविद्या का पूर्ण विनाश हो जाता है और आत्मा की विशुद्ध अवस्था प्राप्त हो जाती है। इस अवस्था को सभी सम्प्रदायों ने लगभग इसी रूप में स्वीकार किया है। अतएव यह कथन सत्य नहीं लगता कि निरंजन नामक कोई पृथक् सम्प्रदाय था जिसका लगभग १२ वीं शताब्दी में उदय हुआ होगा।" डॉ. त्रिगुणायत ने निरंजन नामक संप्रदाय का संस्थापक कबीरपंथी हरीदास को बताया। यह भ्रम मात्र है । निरंजन नाम का न तो कोई सम्प्रदाय ही था और न उसका संस्थापक हरिदास अथवा निरंजन नामक कोई सहजिया बौद्ध सिद्ध ही था । इस संदर्भ में यह उल्लेखनीय है कि निरंजन शब्द का प्रयोग आत्मा की उस परमोच्च अवस्था के लिए आगमकाल से होता रहा है जिसमें माया अथवा अविद्या का पूर्ण विनाश हो जाता है। योगीन्दु ने इस शब्द का प्रयोग बहुत किया है। उनका समय लगभग ८ वीं शती है। उन्होंने यह स्पष्ट किया है कि निरंजन वह है जिसमें रागादिक विकारों में से एक भी दोष न हों - जासुण वण्णु ण गंधु रसु ज सुण सदु ण फासु । जासु ण जम्मणु मरणु णवि णाउ णिरंजणु तासु ।। जासु ण कोहु ण मोहु मउ जासु ण माय ण माणु । जासु ण ठाणुण झाणु जिय सो जि णिरंजणु जाणु ।। अत्थि ण पुण्णु ण पाउ जसु अत्थि ण हरिसु विसाउ । अत्थि ण एक्कु वि दोसु जसु सो जि णिरजणु माउ ।।
SR No.022771
Book TitleHindi Jain Sahityame Rahasya Bhavna
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPushplata Jain
PublisherSanmati Prachya Shodh Samsthan
Publication Year2008
Total Pages516
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size32 MB
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