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रहस्य भावनात्मक प्रवृत्तियों का तुलनात्मक अध्ययन 379
सूरसागर के प्रथम स्कन्ध के प्रारम्भ में सूरदास ने परब्रह्म के रूप की विस्तृत व्याख्या की है। अनेक ऐसे पद हैं जिनमें परब्रह्म कृष्ण के अन्तर्यामी विराट स्वरूप तथा निर्गुण स्वरूप का वर्णन है।५ .
बनारसीदास ने भी परमात्मा के इन्हीं सगुण और निर्गुण स्वरूप की स्तुति की है - 'निर्गुण रूप निरंजनदेवा, सगुण स्वरूप करें विधि सेवा। एक अन्यत्र स्थान पर कवि ने चैतन्य पदार्थको एक रूप ही कहा है पर दर्शन गुण को निराकार चेतना और ज्ञानगुण को साकार चेतना माना है -
निराकार चेतना कहावै दरसन गुन, साकार चेतना सुद्ध ज्ञानगुनसार है । चेतना अद्वैत दोऊ चेतन दरव मांहि, समान विशेष सत्ता ही को विस्तार है।।१९७
अंजन का अर्थ माया है और माया से विमुक्त आत्मा को निरंजन कहा गया है। बनारसीदास ने उपर्युक्त पद में निरंजन शब्द का प्रयोग किया है। कबीर ने भी निरंजन की निर्गुण और निराकार माना
है
गो पंदे तूं निरंजन तूं निरंजन राया । तेरे रूप नांहि रेख नांही, मुद्रा नांही माया ।।
सुन्दरदास ने भी इसे स्वीकार किया है - 'अंजन यह माया करी, आपु निरंजन राइ। सुन्दर उपजत देखिए, बहुरयो जाइ विलाइ। आनन्दघन की दृष्टि में जो व्यक्ति समस्त आशाओं को दूर कर ध्यान द्वारा अजपा जाप को अपने अन्तःकरण में संचित करता है वह निरंजन पद को प्राप्त करता है -