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रहस्य भावनात्मक प्रवृत्तियों का तुलनात्मक अध्ययन 381
बनारसीदास ने भी इसी परम्परा को स्वीकार किया है। उसी निरंजन की उन्होंने वंदना की है। वही परमगुरु और अपभंजक है।२०९ भगवान का यही निर्गुण स्वरूप यथार्थ स्वरूप है। तुलसी का ब्रह्म भी मूलतः निर्गुणपरक ही हैं इसी को निष्कल ब्रह्म भी कहा जाता है। अल्लाह, करीम, रहीम आदि सुफी नामों के अतिरिक्त आत्मा गुरु, हंस, राम आदि शब्दों का भी प्रयोग निर्गुणी सन्तों ने ब्रह्म के अर्थ में किया है। जैनाचार्यो ने भी इनमें से अधिकांश शब्दों को स्वीकार किया है। यह जिनसहस्रनाम से स्पष्ट है। सगुण परम्परा का भी उन्होंने आधार लिया है। ब्रह्मत्व निरूपण में यहां एकत्ववाद की प्रतिष्ठा की गई है जिसमें अध्यात्म का सरस निर्मल जल सिंचित हुआ है। साकारविग्रह के वर्णन में ब्रह्म के विराट स्वरूप का दर्शन होता है। अद्वैतता और अखण्डता का भी प्रतिपादन किया गया है। इसी को अनिर्वचनीय और अगोचर भी कहा गया है। ये सभी तत्त्व सगुण-निर्गुण भक्त कवियों के साहित्य में हीनाधिक भाव से मिलते हैं। जैन कवियों की भक्ति भी सगुणा और निर्गुणा रही है। अतः उनका आत्मा और ब्रह्म भी उपर्युक्त विशेषणों से मुक्त नहीं हो सका -
निसानी कहा बताउं रे रो वचन अगोचर रूप । रूपी कहूं तो कछु नाही रे, कैसे बंधै अरूप ।। रूपा रूपी जो कहूं प्यारे, ऐसे न सिद्ध अनूप । सिद्ध सरूपी जो कहूं प्यारे, बन्धन मोक्ष विचार ।। सिद्ध सनातन जो कहूं रे, उपजै विणसे कोण ।
उपजै विणसै जो कहूं प्यारे, नित्य अवाधित गौन ।।१० ३. प्रपत्त - भावना
डॉ.रामकुमार वर्मा ने कबीर का रहस्यवाद' में रहस्यवाद की भूमिका चार प्रमुख तत्त्वों से निर्मित बतलायी है - आस्तिकता, प्रेम