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हिन्दी जैन साहित्य में रहस्यभावना नामकरण में भी हम नहीं उलझे । विस्तार और पुनरुक्ति के भय से हमने आदिकालीन और मध्यकालीन हिन्दी जैन साहित्य को उनकी सामान्य प्रवृत्तियों में ही विभाजित करना उचित समझा। यह मात्र सूची जैसी अवश्य दिखाई देती है पर उसका अपना महत्त्व है। यहां हमारा उद्देश्य हिन्दी साहित्य का इतिहास लिखने वाले विद्वानों को प्रत्येक प्रवृत्तिगत महत्त्वपूर्ण काव्यों की गणना से ज्ञापित कराना मात्र रहा है जिनका अभी तक हिन्दी साहित्य के इतिहास में किन्हीं कारणों वश उल्लेख नहीं हो पाया । उन प्रवृत्तियों के विस्तार में हम नहीं जा सके। जाना सम्भव भी नहीं था क्योंकि उसकी एक-एक प्रवृत्ति पृथक् पृथक् शोध प्रबन्ध की मांग करती प्रतीत होती है। तुलनात्मक अध्ययन को भी हमने संक्षिप्त किया है अन्यथा वह भी एक अलग प्रबन्ध-सा हो जाता। प्रस्तुत अध्ययन के बाद विश्वास है, रहस्यवाद के क्षेत्र में एक नया मानदण्ड प्रस्थापित हो सकेगा।
प्रायः हर जैन मंदिर में हस्तलिखित ग्रंथों का भण्डार है। परन्तु वे बडी बेरहमी से अव्यवस्थित पडे हुए हैं। आश्चर्य की बात यह है कि यदि शोधक उन्हें देखना चाहे तो उसे पूरी सुविधायें नहीं मिल पातीं। हमने अपने अध्ययन के लिए जिन-जिन शास्त्र भंडारों को देखा, सरलता कहीं नहीं हुई । जो भी अनुभव हुए, उनसे यह अवश्य कहा जा सकता है कि शोधक के लिए इस क्षेत्र में कार्य करने के लिए प्रभूत सामग्री है पर उसे साहसी और सहिष्णु होना आवश्यक है।
इस प्रबन्ध लेखन में हमें मान्यवर स्व. प्रोफेसर व्ही.पी. श्रीवास्तव, भूतपूर्व अध्यक्ष, हिन्दी विभाग, हिस्लाप कालेज,नागपुर का मार्गदर्शन मिला है। उनके स्नेहिल मार्गदर्शन के लिये हम अत्यंत