SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 375
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ रहस्य भावनात्मक प्रवृत्तियों का तुलनात्मक अध्ययन केते कंथ किये तैं कुलटा, तो भी मन न अधाया । किस ही सौं नहिं प्रीति निभाई, वह तजि और लुभाया ।। भूधर छलत फिरत यह सबकों, भौंदू करि जय पाया । जो इस ठगनी को ठब बैठे, मैं तिनको शिर नाया ।। ५७ 359 अन्यत्र पदों में कबीर ने माया को सारे संसार को नागपाश में बांधने वाली चाण्डालिनि डोमिनि और सापित आदि कहा है। संत आनन्दघन भी माया को ऐसे ही रूप में मानते हैं और उससे सावधान रहने का उपदेश देते हैं। "कबीर का भी इसी आशय से युक्त पद है - अबधू ऐसो ज्ञान विचारी, ताथै भाई पुरिष थैं नारी ।। नां हूं पत्नी नां हूं क्कारी, पूत जन्यूं धौ कारी । काली मूण्ड कौ एक न छोडयौ अजहूं अकन कुवारी ।। ब्रह्मन के बह्मनेरी कहियौ, जोगी के घर चेली । कलमा पढि पढ भई तुरकनी, अजहूं फिरौं अकेली ।। पीहरि जाउं न रहूं सासुरै, पुरषहिं अंगि न लाऊं । कहै कबीर सुनहु रे सन्तों, अंगहि अंग न धुवाऊं ।। " ५९ ६० तुलसीदास ने माया को वमन की भांति त्याज्य बताया। " मलूकदास ने उसे काली नागिन " और दादू ने सर्पिणी" कहा । जायसी", सूर ̈ और तुलसी" ने इस संसार को स्वप्नवत् कहा जिसमें संसारी निरर्थक ही मोही बना रहता है । भूधरदास ने भी संसार के तमाशे को स्वप्न के समान देखा है - " देख्या बीच जहान के स्वपने का अजव तमाशा वे ।। एकौंके घर मंगल गावैं पूगी मन की आसा । एक वियोग भरे बहु रौवैं, भरि भरि नेन निरासा ||१|| तेज तुरंगनिपै चढ़ि चलते पहरैं मलमल खासा
SR No.022771
Book TitleHindi Jain Sahityame Rahasya Bhavna
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPushplata Jain
PublisherSanmati Prachya Shodh Samsthan
Publication Year2008
Total Pages516
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size32 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy