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हिन्दी जैन साहित्य में रहस्यभावना रंग भये नागे अति डौलै, ना कोई देय दिलासा ।। तरकैं राज तखत पर बैठा, था खुशवक्त खुलासा । ठीक दुपहरी मूदत आई, जंगल कीना वासा ।।३।। तन धन अथिर निहायत जग में, पानी मांहि पतासा । भूधर इनका गरव करें जे फिट तिनका जनमासा ।।४।।
मिथ्यात्व, मोह और माया के कारण ही जीव में क्रोध, लोभ राग, द्वेषादिक विकारों का जन्म होता है। तुलसी ने इनको अत्यन्त उपद्रव करने वाले मानसिक रोगों के रूप में चित्रित किया है। सूर ने इनको परिधान मानकर संसार का कारण माना है -
अब मैं नाच्यो बहुत गोपाल । कामक्रोध को पहिरि चोलना कण्ठ विषय की माल । महामोह के नुपूर बाजत निंदा-शब्द रसाल । भ्रम-मायो मन भयो षखावज चलत असंगत चाल । तृष्णा नाद करति घट भीतर, नाना विधि दे ताल । माया को कटि फेटा बांध्यों लोभ तिलक दियौ भउ । कोटिक कला काछि दिखराई जल थल सुधिं नंहिंकाल । सूरदास की सबै अविद्या दूरि करौ नन्दलाल ।।
इसीलिए भैया भगवतीदास इन विकारों से दूर रहने की सलाह देते हैं। कर्म भी मिथ्यात्व का कारण है। तुलसी ने उन्हें सुख-दुःख का हेतु माना है - ‘काहू न होऊ सुख दुःखकर दाता। निज कृत कर्म भोग सुख भ्राता।"नूर भी “जनम जनम बहु करम किए हैं तिनमें आपुम आप बधापे' कहकर यह बताया है कि उन्हें भोगे बिना कोई भी उनसे मुक्त नहीं हो सकता। भैया भगवतीदास ने “कर्मन के हाथ दे बिकाये जग जीव सवै, कर्म जोई करे सोई इनके प्रभात है 'लिखकर