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हिन्दी जैन साहित्य में रहस्यभावना जैन साधकों और कबीर के माया सम्बन्धी विचार मिलतेजुलते से हैं। कबीर ने माया को छाया के समान माना है जो प्रयत्न करने पर भी ग्रहण नहीं की जा सकती। फिर भी जीव उसके पीछे दौड़ता है। बनारसीदास ने भी उसे छाया कहकर सुन्दर शय्या कहा है जिसपर मोही मोह-निद्रा से ग्रस्त हो जाता है।" कबीर और भूधरदास दोनों ने माया को ठगिनी कहा है। कबीर ने इस माया के विभिन्न रूप और नाम बताये हैं और उसे कथनीय कहा है -
माया महा ठगिनी हम जानी । निरगुन फांस लिये कर डौले, बौले मधुरी वानी, केशव के कमला हवै बैठी, शिव के भवन शिवानी । पंडा के मूरति हवै बैठी तीरथ में भई पानी, जोगी के जोगिन हवै बैठी राजा के घर रानी ।। काहू के हीरा हवै बैठी, काहू के कौड़ी कानी, भगतन के भगतिन हवै बैठी ब्रह्मा के ब्रह्मानी । कहत कबीर सुनो हो संतो, यह सब अकथ कहानी ।
कबीर के समान ही भूधरदास ने माया को 'ठगनी' शब्द से सम्बोधित किया है और उसे बिजली की आत्मा के समान माना है जो अज्ञानी प्राणियों को ललचाती रहती है। इसका जरा भी विश्वास करने पर पछताना ही हाथ लगता हैं आगे भूधरदास जी केते कंथ किये ते कुलटा, तो भी मन न अधाया' कहकर उसके रहस्य को स्पष्ट कर देते हैं परन्तु कबीर उसे कथनीय कहकर ही रह जाते हैं।
सूनि ठगनी माया, तै सब जग ठग खाया । टुक विश्वास किया जिन तेरा, सो मूरख पछताया ।। आभा तनक दिखाय बिज्जु, ज्यों मूढमती ललचाया । करि मव अंध धर्म हर लीनों, अन्त नरक पहुंचाया ।।