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हिन्दी जैन साहित्य में रहस्यभावना एक अन्यत्र पद में सूरदास संसार और संसार की माया को मिथ्या मानते हैं -
'मिथ्या यह संसार और और मिथ्या यह माया मिथ्या है यह देह कहौ क्यौं हरि विसराया।"
जैन कवि बनारसीदास जन्म गंवाने के कारणों को भी गिना देते हैं। उनके भावों में जो गहराई और अनुभूति झलकती है वह सूर के उक्त पद्य में नहीं दिखाई देती है -
वा दिन को कर सोच जिये मन में ।। अनज किया व्यापारी तूने, टांडा लादा भारी रे । ओछी पूंजी जूआ खेला, आखिर बाजी हारी रे ।।.... झूठे नैना उलफत बांधी, किसका सोना किसकी चांदी।। इक दिन पवन चलेगी आंधी किसकी बीबी किसकी बांदी।।
नाहक चित्त लगावे धन में ।१९ २. शरीर से ममत्व
साधकों ने शरीर की विनश्वरता पर भी विचार किया है। वाल्यावस्था और युवावस्था यों ही निकल जाती है, युवावस्था में वह विषय वासना की ओर दौड़ता है और जब वृद्धावस्था आ जाती है तब वह पश्चात्ताप करता है कि क्यों वह अध्यात्म की ओर से विमुख रहा। कबीर ने वृद्धावस्था का चित्रण करते हुए बड़ेमार्मिक शब्दों में कहा है -
तरुनापन गइ बीत बुढ़ापा आनि तुलाने । कांपन लागे सीस चलत दोउ चरन पिराने । नैन नासिका चूवन लागे मुखतें आवत वास । कफ पित कठे घेरि लियो है छूटि गई घर की आस ।।"
सूर ने भी इन्द्रियों की बढ़ती हुई कमजोरी का इसी प्रकार वर्णन किया है -